गीता रहस्य -तिलक पृ. 345

गीता रहस्य अथवा कर्मयोग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक

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ग्यारहवाँ प्रकरण

इस विषय पर भगवद्गीता ही मुख्‍य और प्रमाण-भूत ग्रन्‍थ है; और काव्‍य की दृष्टि से भी यही ठीक जँचता है, कि भारत-भूमि के कर्ता पुरुषों के चरित्र जिस महाभारत में वर्णित हैं; उसी में अध्‍यात्‍मशास्‍त्र को ले कर कर्मयोग की भी उपपत्ति बतलाई जावे। इस बात का भी अब अच्‍छी तरह से पता लग जाता है, कि प्रस्‍थानत्रयी में भगवद्गीता का समावेश क्‍यों किया गया है। यद्यपि उपनिषद मूलभूत हैं; तो भी उनके कहनेवाले ऋषि अनेक हैं; इस कारण उनके विचार संकीर्ण और कुछ स्‍थानों में परस्‍पर-विरुद्ध भी देख पड़ते हैं इसलिये उपषिदों के साथ ही साथ, उनकी एकवाक्‍यता करने वाले वेदांतसूत्र, दोनों की अपेक्षा यदि गीता में कुछ अधिकता न होती, तो प्रस्‍थानत्रयी में गीता के संग्रह करने का कोई भी कारण न था। किन्‍तु उपनिषदों का झुकाव प्राय: संन्‍यास मार्ग की ओर है, एवं विशेषत: उनमें ज्ञान मार्ग का ही प्रतिपादन है; और भगवद्गीता में इस ज्ञान को ले कर भक्तियुक्‍त कर्मयोग का समर्थन है-बस, इतना ही कह देने से गीता ग्रंन्‍थ की अपूर्वता सिद्ध हो जाती है और साथ ही साथ प्रस्‍थानत्रयी के तीनों भागों की सार्थकता भी व्‍यक्‍त हो जाती है। क्‍योंकि वैदिक धर्म के प्रमाणभूत ग्रंन्‍थ में यदि ज्ञान और कर्म ( सांख्‍य और योग ) दोनों वैदिक मार्गों का विचार न हुआ होता, तो प्रस्‍थानत्रयी उतनी अपूर्ण ही रह जाती। कुछ लोगों की समझ है कि, जब उपनिषद सामान्‍यत: वि‍धूत्तिविषयक हैं, तब गीता का प्रवृत्तिविषयक अर्थ लगाने से प्रस्‍थानत्रयी के तीनों भागों में विरोध हो जायगा और उनकी प्रामाणिकता में भी न्‍यूनता आ पावेगी।

यदि सांख्‍य अर्थात् एक संन्‍यास ही सच्‍चा वैदिक मोक्षमार्ग हो, तो यह शंका ठीक होगी। परन्‍तु ऊपर दिखलाया जा चुका है, कि कम से कम ईशावास्‍य आदि कुछ उपनिषदों में तो कर्मयोग का स्‍पष्‍ट उल्‍लेख है। इसलिये वैदिक धर्म-पुरुष को केवल एकहत्‍थी अर्थात् संन्‍यासप्रधान न समझ कर यदि गीता के अनुसार ऐसा सिद्धान्‍त करें कि उस वैदिक धर्म-पुरुष के ब्रह्मविद्यारूप एक ही मस्‍तक है और मोक्षदृष्टि से तुल्‍य बलवाले सांख्‍य और कर्मयोग उसके दहिने-बाएं दो हाथ हैं, तो गीता और उपनिषदों में कोई विरोध नहीं रह जाता। उपनिषदों में एक मार्ग का समर्थन है, और गीता में दूसरे मार्ग का; इसलिये प्रस्‍थानत्रयी के ये दोनों भाग भी दो हाथों के समान, परस्‍पर-विरुद्ध न हो, सहायकारी ही देख पड़ेंगे। ऐसे ही, गीता में केवल उपनिषदों का ही प्रतिपादन मानने से, पिष्‍टपेषण का जो वैयर्थ्‍य गीता को प्राप्‍त हो जाता, वह भी नहीं होता। गीता के साम्‍यदायिक टीकाकारों ने इस विषय की उपेक्षा की है, इस कारण सांख्‍य और योग, दोनों मार्गों के पुरस्‍कृत अपने अपने पन्‍थ के समर्थन में जिन मुख्‍य कारणों को बतलाया करते हैं, उनकी समता और विषमता चटपट ध्‍यान में आ जाने के लिये नीचे लिखे गये नक्‍शे के दो खानों में वे ही कारण परस्‍पर एक दूसरे के सामने संक्षेप से दिये गये हैं। स्‍मृतिग्नंथों में प्रतिपादित स्‍मार्त आश्रम-व्‍यवसथा और मूल भागवत धर्म के मुख्‍य मुख्‍य भेद इससे ज्ञात हो जावेंगे।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

गीता रहस्य अथवा कर्म योग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक
प्रकरण नाम पृष्ठ संख्या
पहला विषय प्रवेश 1
दूसरा कर्मजिज्ञासा 26
तीसरा कर्मयोगशास्त्र 46
चौथा आधिभौतिक सुखवाद 67
पाँचवाँ सुखदु:खविवेक 86
छठा आधिदैवतपक्ष और क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विचार 112
सातवाँ कापिल सांख्यशास्त्र अथवा क्षराक्षर-विचार 136
आठवाँ विश्व की रचना और संहार 155
नवाँ अध्यात्म 178
दसवाँ कर्मविपाक और आत्मस्वातंत्र्य 255
ग्यारहवाँ संन्यास और कर्मयोग 293
बारहवाँ सिद्धावस्था और व्यवहार 358
तेरहवाँ भक्तिमार्ग 397
चौदहवाँ गीताध्यायसंगति 436
पन्द्रहवाँ उपसंहार 468
परिशिष्ट गीता की बहिरंगपरीक्षा 509
- अंतिम पृष्ठ 854

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