गीता रहस्य -तिलक पृ. 343

गीता रहस्य अथवा कर्मयोग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक

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ग्यारहवाँ प्रकरण

इसलिये गीता का अन्तिम सिद्धान्‍त है, कि स्‍मृतिग्रन्‍थों की आश्रम-व्‍यवस्‍था का और निष्‍काम कर्मयोग का विरोध नहीं। सम्‍भव है इस विवेचन से कुछ लोगों की कदाचित ऐसी समझ हो जाय, कि संन्‍यासधर्म के साथ कर्मयोग का मेल करने का जो इतना बड़ा उद्योग गीता में किया गया है, उसका कारण यह है कि स्‍मार्त या संन्‍यास धर्म प्राचीन होगा और कर्मयोग उसके बाद का होगा। परनतु इतिहास की दृष्टि से विचार करने पर कोई भी जान सकेगा कि सच्‍ची स्थिति ऐसी नहीं हैं। यह पहले ही कह आये हैं, कि वैदिक धर्म का अत्‍यन्‍त प्राचीन स्‍वरूप कर्मकाण्डात्‍मक ही था। आगे चलकर उपनिषदों के ज्ञान से कर्मकाण्‍ड को गोणता प्राप्‍त होने लगी ओर कर्मत्‍यागरूपी संन्‍यास धीरे-धीरे प्रचार में आने लगा। यह वैदिक धर्म-वृक्ष की वृद्धि की दूसरी सीढ़ी है। परन्‍तु ऐसे समय में भी, उपनिषदों के ज्ञान का कर्मकाण्‍ड से मेल मिलाकर, जनक प्रभृति ज्ञाता पुरुष अपने कर्म निष्‍काम बुद्धि से जीवन भर किया करते थे- अर्थात् कहना चाहिये, कि वैदिक धर्म-वृत्‍त की यह दूसरी सीढ़ी दो प्रकार की थी- एक जनक आदि की, और दूसरी याज्ञवल्‍क्‍य प्रभृति की। समार्त आश्रम-व्‍यवस्‍था इससे अगली अर्थात् तीसरी सीढ़ी है। दूसरी सीढ़ी के समान तीसरी के भी दो भेद हैं। स्‍मृतिगन्‍थों में कर्मत्‍यागरूप चौथे आश्रम की महत्‍ता गाई तो अवश्‍य गई है, पर उसके साथ ही जनक आदि के ज्ञानयुक्‍त कर्मयोग का भी-उसको संन्‍यास आश्रम का विकल्‍प समझकर-स्‍मृतिप्रणेताओं ने वर्णन किया है।

उदाहरणार्थ, सब स्‍मृतिग्रन्‍थों में मूलभूत मनुस्‍मृति को ही लीजिये; इस स्‍मृति के छठे अध्‍याय में कहा है, कि मनुष्‍य ब्रह्मचर्य, गृहस्‍थ्‍य और वानप्रस्‍थ आश्रमों से चढ़ता चढ़ता कर्मत्‍यागरूप चौथा आश्रम ले। परन्‍तु संन्‍यास आश्रम अर्थात् यतिधर्म का निरूपण समाप्‍त होने पर मनु ने पहले यह प्रस्‍तावना की, कि ‘’यह यतियों का अर्थात् संन्‍यासियों का धर्म बतलाया, अब वेद-संन्‍यासिकों का कर्मयोग कहते हैं’’ और फिर यह बतला कर कि अन्‍य आश्रमों की अपेक्षा गृहस्‍थाश्रम ही श्रेष्‍ठ कैसे है, उन्‍हीं ने संन्‍यास आश्रम या यतिधर्म को वैकल्पिक मान निष्‍काम गार्हसथ्‍यवृत्ति के कर्मयोग का वर्णन किया है[1]; और आगे बारहवें अध्‍याय में उसे ही ‘’वैदिक कर्मयोग’’ नाम दे कर कहा है, कि यह मार्ग भी चतुर्थ आश्रम के समान ही नि:श्रेयस्‍कर अर्थात् मोक्षप्रद है[2]। मनु का यह सिद्धन्‍त याज्ञवल्‍क्‍य-स्‍मृति में भी आया है। इस स्‍मृति के तीसरे अध्‍याय में यतिधर्म का निरूपण हो चुकने पर ‘अथवा’ पद का प्रयोग करके लिखा है, कि आगे ज्ञाननिष्‍ठ और सत्‍यवादी गृहस्‍थ भी ( संन्‍यास न ले कर ) मुक्ति पाता है[3]। इसी प्रकार यास्‍क ने भी अपने निरक्‍त में लिखा है, कि कर्म छोड़नेवाले तपस्वियों और ज्ञानयुक्‍त कर्म करने वाले कर्मयोगियों को देवयान गति प्राप्त होती है[4]। इसके अतिरिक्‍त, इस विषय में दूसरा प्रमाण धर्मसूत्रकारों का है। ये धर्मसूत्र गद्य में हैं और विद्वानों का मत है कि श्‍लोंको में रची गयी स्‍मृतियों से ये पुराने होगें। इस समय हमें यह नहीं देखना है, कि यह मत सही है या गलत। चाहे वह सही हो या गलत; इस प्रसंग पर मुख्‍य बात यह है, कि ऊपर मनु और याज्ञवल्‍क्‍य-स्‍मृतियों के वचनों में गृह- स्‍थाश्रम या कर्मयोग का जो महत्‍व दिखाया गया है उससे भी अधिक महत्‍व धमसूत्रों में वर्णित है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. मनु. 6. 86-96
  2. मनु. 12. 86-90
  3. याज्ञ. 3. 204. और 205
  4. नि. 14. 9

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प्रकरण नाम पृष्ठ संख्या
पहला विषय प्रवेश 1
दूसरा कर्मजिज्ञासा 26
तीसरा कर्मयोगशास्त्र 46
चौथा आधिभौतिक सुखवाद 67
पाँचवाँ सुखदु:खविवेक 86
छठा आधिदैवतपक्ष और क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विचार 112
सातवाँ कापिल सांख्यशास्त्र अथवा क्षराक्षर-विचार 136
आठवाँ विश्व की रचना और संहार 155
नवाँ अध्यात्म 178
दसवाँ कर्मविपाक और आत्मस्वातंत्र्य 255
ग्यारहवाँ संन्यास और कर्मयोग 293
बारहवाँ सिद्धावस्था और व्यवहार 358
तेरहवाँ भक्तिमार्ग 397
चौदहवाँ गीताध्यायसंगति 436
पन्द्रहवाँ उपसंहार 468
परिशिष्ट गीता की बहिरंगपरीक्षा 509
- अंतिम पृष्ठ 854

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