गीता रहस्य अथवा कर्मयोग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक
ग्यारहवाँ प्रकरण
इससे स्पष्ट विदित होता है, कि संन्यास या स्मार्त मार्गवालों को भी ज्ञान के पश्चात् कर्म बिलकुल ही त्याज्य नहीं जँचते; कुछ ज्ञानी पुरुषों को अपवाद मान अधिकार के अनुसार कर्म करने की स्वतंत्रता इस मार्ग में दी गई है। इसी अपवाद को और व्यापक बना कर गीता कहती है, कि चातुर्वणर्य के लिये विहित कर्म, ज्ञान-प्राप्ति हो चुकने पर भी, लोकसंग्रह के निमित्त कर्त्तव्य समझ कर, प्रत्येक ज्ञानी पुरुष को निष्काम बुद्धि से करना चाहिये। इससे सिद्ध होता है, कि गीताधर्म व्यापक हो, तो भी उसका तत्त्व संन्यास मार्गवालों की दृष्टि से भी निर्दोष है; और वेदान्तसूत्रों की स्वतंत्र रीति से पढ़ने पर जान पड़ेगा, कि उनमें भी ज्ञानयुक्त कर्मयोग संन्यास का विकल्प समझा कर ग्रह्य माना गया है[1][2]। अब यह बतलाना आवश्यक है, कि निष्काम बुद्धि से ही क्यों न हो, पर जब मरण पर्यन्त कर्म ही करना है, तब स्मृतिग्रन्थों में वर्णित कर्मत्यागरूपी चतुर्थ आश्रम या संन्यास आश्रम की क्या दशा होगी। अर्जुन अपने मन में यही सोच रहा था, कि भगवान् कभी न कभी कहेंगे ही, कि कर्मत्यागरूपी संन्यास लिये बिना मोक्ष नहीं मिलता; और तब भगवान् के मुख से ही युद्ध छोड़ने के लिये मुझे स्वतंत्रता मिल जावेगी। परन्तु जब अर्जुन ने देखा, कि सत्रहवें अध्याय के अन्त तक भगवान ने कर्मत्याग रूप संन्यास आश्रम की बात भी नहीं की, बारंबार केवल यही उपदेश किया कि फलाशा को छोड़ दे; तब अठारवें अध्याय के आरम्भ में अर्जुन ने भगवान् से प्रश्न किया है, कि ‘’तो फिर मुझे बतलाओ, संन्यास और त्याग में कया भेद है? ‘’अर्जुन के इस प्रश्न का उत्तर देते हुए भगवान कहते हैं ‘’अर्जुन! यदि तुम ने समझा हो, कि मैं ने इतने समय तक जो कर्मयोग मार्ग बतलाया है उसमें संन्यास नहीं है, तो वह समझ गलत है। कर्मयोगी पुरुष सब कर्मों के दो भेद करते हैं-एक को कहते हैं ‘काम्ब’ अर्थात् आसक्त बुद्धि से किये गये कर्म; और दूसरे को कहते हैं ‘निष्काम’ अर्थात् आसक्ति छोड़ कर किये गये कर्म।[3]। इनमें से ‘काम्य’ वर्ग में जितने कर्म हैं उन सब को कर्मयोगी एकाएक छोड़ देता है, अर्थात् वह उनका ‘सन्यास’ करता है। बाकी रह गये ‘निष्काम’ या ‘निवृत्त’ कर्म; सो कर्मयोगी निष्काम करता तो है, पर उन सब में फलाशा का ‘त्याग’ छूटा कहाँ है? स्मार्त मार्गवाले कर्म का स्वरूपत: संन्यास करते हैं, तो उसके स्थान में कर्ममार्ग के योगी कर्मफलाशा का संन्यास करते हैं। संन्यास दोनों ओर क़ायम ही है ‘’[4]। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ वेसू. 3. 4. 29; 3. 4. 32-35
- ↑ वेदान्तसूत्र के इस अधिकरण का अर्थ शांकरभाष्य में कुद निराला है। परन्तु ‘विहितत्वाच्चाश्रमकर्माणि' ( 3. 4. 32 ) का अर्थ हमारे मत में ऐसा है, कि ‘’ज्ञानी पुरुष आश्रमकर्म भी करे तेा अच्छा है, क्योंकि वह विहित है।’’ सारांश, हमारी समझ से वेदान्तसूत्र में दोनों पक्ष स्वीकृत है, कि ज्ञानी पुरुष कर्म करे, चाहे न करे।
- ↑ मनुस्मृति 23. 89 में इन्हीं कर्मों को क्रम से ‘प्रवृत्त’ और ‘निवृत्त’ नाम दिये हैं
- ↑ गी. 18. 1-6 पर हमारी टीका देखो
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