गीता रहस्य -तिलक पृ. 338

गीता रहस्य अथवा कर्मयोग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक

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ग्यारहवाँ प्रकरण

इसके पहले कर्म ही प्रधान माना जाता था। उपनिषत्‍काल में वैराग्‍य युक्‍त ज्ञान अर्थात् संन्‍यास की इस प्रकार बढ़ती होने लगने पर, यज्ञ-याग प्रभृति कर्मों की और या चातुर्वणर्य धर्म की और भी ज्ञानी पुरुष यों ही दुर्लभ करने लगे और तभी से यह समझ मन्‍द होने लगी, कि लोकसंग्रह करना हमारा कर्तव्‍य है। स्‍मृति प्रणेताओं ने अपने अपने ग्रन्‍थों में यह कह कर, कि गृहस्‍थाश्रम में यज्ञ-याग आदि श्रौत या चातुर्वणर्य के स्‍मार्त कर्म करना ही चाहिये, गृहस्‍थाश्रम की बढ़ाई गाई है सही; परंतु स्‍मृतिकारों के मत में भी, अन्‍त में वैराग्‍य या संन्‍यास आश्रम ही श्रेष्‍ठ माना गया है; इसलिये उपनिषदों के ज्ञान-प्रभाव से कर्मकाण्‍ड को जो गौणता प्राप्‍त हो गयी थी उसको हटाने का सामर्थ्‍य स्‍मृतिकारों की आश्रम व्‍यवस्‍था में नहीं रह सकता था। ऐसी अवस्‍था में ज्ञानकाण्‍ड और कर्मकाण्‍ड में से किसी को गौण न कह कर, भक्ति के साथ इन दोनों का मेल कर देने के लिये, गीता की प्रवृत्ति हुई है। उपनिषत्-प्रणेताओं के ये सिद्धान्‍त गीता को मान्‍य हैं; कि ज्ञान के बिना मोक्ष-प्राप्ति नहीं होती और यज्ञ-याग आदि कर्मों से यदि बहुत हुआ तो स्‍वर्ग–प्राप्ति हो जाती है[1]। परन्‍तु गीता का यह भी सिद्धान्‍त है, कि सृष्टि-क्रम को जारी रखने के लिये यज्ञ अथवा कर्म के चक्र को भी कायम रखना चाहिये-कर्मों को छोड़ देना निरा पागलपन या मूर्खता है।

इसलिये गीता का उपदेश है, कि यज्ञ-याग आदि श्रौत कर्म अथवा चातुर्वणर्य आदि व्‍यावहारिक कर्म अज्ञानपूर्वक श्रद्धा से न करके ज्ञानवैराग्‍य-युक्‍त बुद्धि से निरा कर्त्तव्य समझ कर करो; इससे यह चक्र भी नहीं बिगड़ने पायगा और तुम्‍हारे किये हुए कर्म मोक्ष के आड़े भी नहीं आवेंगे। कहना नहीं होगा, कि ज्ञानकाण्‍ड और कर्मकाण्‍ड ( संन्‍यास और कर्म ) कर्म का मेल मिलाने की गीता की यह शैली स्‍मृतिकर्ताओं की अपेक्षा अधिक सरस है। क्‍योंकि व्‍यष्टिरूप आत्‍मा का कल्‍याण यत्किञ्चित् भी न घटा कर उसके साथ सृष्टि के समष्टि रूप आत्‍मा का कल्‍याण भी गीतामार्ग से साधा जाता है। मीमांसक कहते हैं, कि कर्म अनादि और वेद-प्रतिपादित हैं इसलिये तुम्‍हें ज्ञान न हो तो भी उन्‍हें करना ही चाहिये। कितने ही ( सब नहीं ) उपनिषत्‍प्रणेता कर्मों को गौण मानते हैं और यह कहते हैं-या यह मानने में कोई क्षति नहीं कि निदान उनका झुकाव ऐसा ही है- कि कर्मों को वैराग्‍य से छोड़ देना चाहिये। और, स्‍मृति कार, आयु के भेद अर्थात् आश्रम-व्‍यवस्‍था से युक्‍त दोनों मतों की इस प्रकार एकवाक्‍यता करते हैं, कि पूर्व आश्रमों में इन कर्मों को करते रहना चाहिये और चित्त शुद्धि हो जाने पर बुढ़ापे में वैराग्‍य से सब कर्मों को छोड़ कर संन्‍यास ले लेना चाहिये। परन्‍तु गीता का मार्ग इन तीनों पन्‍थों से भिन्‍न है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. मुंड. 1. 2. 10; गी. 2. 41-45

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गीता रहस्य अथवा कर्म योग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक
प्रकरण नाम पृष्ठ संख्या
पहला विषय प्रवेश 1
दूसरा कर्मजिज्ञासा 26
तीसरा कर्मयोगशास्त्र 46
चौथा आधिभौतिक सुखवाद 67
पाँचवाँ सुखदु:खविवेक 86
छठा आधिदैवतपक्ष और क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विचार 112
सातवाँ कापिल सांख्यशास्त्र अथवा क्षराक्षर-विचार 136
आठवाँ विश्व की रचना और संहार 155
नवाँ अध्यात्म 178
दसवाँ कर्मविपाक और आत्मस्वातंत्र्य 255
ग्यारहवाँ संन्यास और कर्मयोग 293
बारहवाँ सिद्धावस्था और व्यवहार 358
तेरहवाँ भक्तिमार्ग 397
चौदहवाँ गीताध्यायसंगति 436
पन्द्रहवाँ उपसंहार 468
परिशिष्ट गीता की बहिरंगपरीक्षा 509
- अंतिम पृष्ठ 854

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