गीता रहस्य -तिलक पृ. 336

गीता रहस्य अथवा कर्मयोग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक

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ग्यारहवाँ प्रकरण

यद्यपि श्रीशंकराचार्य ने जैन और बौद्धों का खण्‍डन किया है, तथापि जैन और बौद्धों ने जिस संन्‍यास-धर्म का विशेष प्रचार किया था, उसे ही श्रौतस्‍मार्त संन्‍यास कह कर आचार्य ने क़ायम रखा और उन्‍होंने गीता का इत्‍यर्थ भी ऐसा निकाला कि, वही संन्‍यास धर्म गीता का प्रतिपाद्य विषय है। परन्‍तु वास्‍तव में गीता स्‍मार्त-मार्ग का विषय नहीं; यद्यपि सांख्‍य या संन्‍यास मार्ग से ही गीता का आरम्‍भ हुआ है, तो भी आगे सिद्धान्‍तपक्ष में प्रवृतिप्रधान भागवतधर्म ही उसमें प्रतिपादित है। यह स्‍वयं महाभारतकार का वचन है, जो हम पहले की प्रकरण में दे आये हैं। इन दोनों पन्‍थों के वैदिक ही होने के कारण, सब अंशों में न सही तो अनेक अंशों में, दोनो की एकवाक्‍यता करना शाक्‍य है। परन्‍तु ऐसी एकवाक्‍यता करना एक बात है; और यह कहना दूसरी बात है, कि गीता में संन्‍यास मार्ग ही प्रतिपाद्य है, यदि काहीं कर्ममार्ग को मोक्षप्रद कहा हो, तो वह सिर्फ अर्थवाद या पोली स्‍तुति है।’ रुचिवैचित्र्य के कारण किसी को भागवतधर्म की अपेक्षा स्‍मार्तधर्म ही बहुत प्‍यारा जँचेगा, अथवा कर्मसंन्‍यास के लिये जो कारण सामान्‍यत: बतलाये जाते हैं वे ही उसे अधिक बलवान प्रतीत होंगे; नहीं कौन कहे। उदाहरणार्थ, इसमें किसी को शंका नहीं, कि श्रीशंकराचार्य को स्‍मार्त या संन्‍यास धर्म ही मान्‍य था, अन्‍य सब मार्गों को वे अज्ञानमूलक मानते थे। परन्‍तु यह नहीं कहा जा सकता, कि सिर्फ उसी कारण से गीता का भावार्थ भी वह होना चाहिये। यदि तुम्‍हें गीता का सिन्‍द्धान्‍त मान्‍य नहीं है, तो कोई चिन्‍ता नहीं, उसे न मानो। परन्‍तु यह उचित नहीं कि अपनी टेक रखने के लिये, गीता के आरम्‍भ में जो यह कहा है कि ‘’इस संसार में आयु बिताने के दो प्रकार के स्‍वतंत्र मोक्षप्रद मार्ग अथवा निष्‍ठाएं हैं’’ इसका ऐसा अर्थ किया जाय, कि ‘’सन्‍यास निष्‍ठा ही एक, सच्‍चा और श्रेष्‍ठ मार्ग है।‘’

गीता में वर्णित ये दोनों मार्ग, वैदिक धर्म में, जनक और यज्ञवलक्‍य के पहले से ही, स्‍वतंत्र रीति से चले आ रहे हैं। पता लगता है, कि जनक के समान समाज के धारण और पोषण करने के अधिकार क्षात्रधर्म के अनुसार, वंशपरम्‍परा से या अपने सामर्थ्‍य से जिनको प्राप्‍त हो जाते थे, वे ज्ञान-प्राप्ति के पश्‍चात् भी निष्‍काम बुद्धि से अपने काम जारी रख कर जगत् का कल्‍याण करने में ही अपनी सारी आयु लगा देते थे। समाज के इस अधिकार पर ध्‍यान देकर ही महाभारत में अधिकार-भेद से दुहरा वर्णन आया है, कि ‘’ सुखं जीवन्ति मुनयो भैक्ष्‍यवृत्तिं समाश्रिता: ‘’[1]-जंगलों मे रहनेवाले मुनि आनन्‍द से भिक्षावृत्ति को स्‍वीकार करते हैं–और ‘’ दण्‍ड एव हि राजेन्‍द्र क्षत्रधर्मो न मुण्‍डनम्’’[2]-दण्‍ड से लोगों का धारण-पोषण करना ही क्षत्रिय का धर्म है, मुण्‍डन करा लेना नहीं। परन्‍तु इससे यह भी समझ लेना चाहिये, कि सिर्फ प्रजापालन के अधिकारी क्षत्रियों को ही, उनके अधिकार के कारण, कर्मयोग विहित था। कर्मयोग के उल्लिखित वचन का ठीक भावार्थ यह है, कि जो जिस कर्म के करने का अधिकारी हो, वह ज्ञान के पश्‍चात् भी उस कर्म को करता रहे; और इसी कारण से महाभारत में कहा है, कि ‘’एषा पूर्वतरा वृत्तिर्ब्राह्मणस्‍य विधीयते ‘’[3]–ज्ञान के पश्‍चात्‌ ब्रह्मण भी अपने अधिकारानुसार यज्ञ-याग आदि कर्म प्राचीन काल में जारी रखते थे।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. शां. 178. 11
  2. शां. 23. 46
  3. शां. 237

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गीता रहस्य अथवा कर्म योग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक
प्रकरण नाम पृष्ठ संख्या
पहला विषय प्रवेश 1
दूसरा कर्मजिज्ञासा 26
तीसरा कर्मयोगशास्त्र 46
चौथा आधिभौतिक सुखवाद 67
पाँचवाँ सुखदु:खविवेक 86
छठा आधिदैवतपक्ष और क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विचार 112
सातवाँ कापिल सांख्यशास्त्र अथवा क्षराक्षर-विचार 136
आठवाँ विश्व की रचना और संहार 155
नवाँ अध्यात्म 178
दसवाँ कर्मविपाक और आत्मस्वातंत्र्य 255
ग्यारहवाँ संन्यास और कर्मयोग 293
बारहवाँ सिद्धावस्था और व्यवहार 358
तेरहवाँ भक्तिमार्ग 397
चौदहवाँ गीताध्यायसंगति 436
पन्द्रहवाँ उपसंहार 468
परिशिष्ट गीता की बहिरंगपरीक्षा 509
- अंतिम पृष्ठ 854

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