गीता रहस्य -तिलक पृ. 330

गीता रहस्य अथवा कर्मयोग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक

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ग्यारहवाँ प्रकरण

‘’ बालपन में अभ्‍यास ( ब्रह्मचर्य ) करने वाले, तरुणावस्‍था में विषयोपभोगरूपी संसार ( गृहस्‍थाश्रम ) करने वाले, उतरती अवस्‍था में मुनिवृत्ति से या वानप्रस्‍थ धर्म से रहनेवाले, और अन्‍त में ( पातंजल ) योग से संन्‍यास धर्म के अनुसार ब्रह्माण्‍ड में आत्‍मा को लाकर प्राण छोड़नेवाले’’-ऐसा सूर्यवंश के पराक्रमी राजाओं का वर्णन किया है[1]। ऐसे ही महाभारत के शुकानुप्रश्‍न में यह कह कर, कि-

चतुष्‍पदी हि नि:श्रेणी ब्रह्मण्‍येषा प्रतिष्ठिता।
एतामारूह्य नि:श्रेणीं ब्रह्मलोके महीयते।।

‘’चार आश्रम रूपी चार सीढि़यों का यह जीना अन्‍त में ब्रह्मपद को जा पहुँचा है; इस ज़ीने से, अर्थात् एक आश्रम से ऊपर के दूसेरे आश्रम में-इस प्रकार चढ़ते जाने पर, अन्‍त में मनुष्‍य ब्रह्मलोक में बड़प्‍पन पाता है’’[2], आगे इस क्रम का वर्णन किया है-

कषायं पाचयित्‍वाशु श्रेणिस्‍थानेषु च त्रिषु।
प्रव्रजेच्‍च परं स्‍थानं पारिव्राज्‍यमनुत्‍तमम्।।

‘’इस जीने की तीन सीढि़यों में मनुष्‍य अपने किल्विष ( पाप ) का अर्थात् स्‍वार्थपरायण आत्‍मबुद्धि का अथवा विषयाशक्त्‍िा रूप दोष का शीघ्र ही क्षय करके फिर संन्‍यास ले; पारिव्राज्‍य अर्थात् संन्‍यास ही सब में श्रेष्‍ठ स्‍थान है’’[3]। एक आश्रम से दूसरे आश्रम में जाने का यह सिलसिला मनुस्‍मृति में भी है[4]। परनतु यह बात मनु के ध्‍यान में अच्‍छी तरह आ गई थी, कि इनमें से अन्तिम अर्थात् संन्‍यास आश्रम की ओर लोगों की फिजूल प्रवृत्ति होने से संसार का कर्त्तव्‍य नष्‍ट हो जायगा और समाज भी पंगु हो जावेगा। इसी से मनु ने स्‍पष्‍ट मर्यादा बना दी है, कि मनुष्‍य पूर्वाश्रम में गृहधर्म के अनुसार पराक्रम और लोकसंग्रह के सब कर्म अवश्‍य करे; इसके पश्‍चात्-

गृहस्‍थस्‍तु यदा पश्‍येद्वलीपलितमात्‍मन:।
अपत्‍यस्‍यैव चापत्‍यं तदारण्‍यं समाश्रयेत्।।

जब शरीर में झुर्रियां पड़ने लगें और नाती का मुँह देख पड़े तब गृहस्‍थ वानप्रस्‍थ होकर संन्‍यास ले लें[5]। इस मर्यादा का पालन करना चाहिये, क्‍योंकि मनुस्‍मृति में ही लिखा है, कि प्रत्‍येक मनुष्‍य जन्‍म के साथ ही अपनी पीठपर ऋषियों, पितरों और देवताओं के ( तीन ) ऋण ( कर्त्तव्य ) ले कर उत्‍पन्‍न हुआ है। इसलिये वेदाध्‍ययन से ऋषियों का, पुत्रोत्‍पादन से पितरों का और यज्ञकर्मो से देवता आादिकों का, इस प्रकार, पहले इन तीनों ऋणों को चुकाये बिना मनुष्‍य संसार छोड़कर संन्‍यास नहीं ले सकता। यदि वह ऐसा करेगा ( अर्थात् संन्‍यास लेगा ), तो जन्‍म से ही पाये हुए क़र्जे को बेबाक़ न करने के कारण वह अधोगति को पहुँचेगा[6]। प्राचीन हिन्‍दुधर्मशास्‍त्र के अनुसार बाप का क़र्ज, मियाद गुज़र जाने का सबब न बतला कर, बेटे या नाती को भी चुकाना पड़ता था और किसी का कर्ज चुकाने से पहले ही मर जाने में बड़ी दुर्गति मानी जाती थी।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. रघु. 1. 8
  2. शां. 241. 15
  3. शां. 244. 3
  4. मनु्. 6. 34
  5. मनु. 6. 2
  6. मनु.6. 35-37 और पिछले प्रकरण का तै. सं. मंत्र देखो

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गीता रहस्य अथवा कर्म योग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक
प्रकरण नाम पृष्ठ संख्या
पहला विषय प्रवेश 1
दूसरा कर्मजिज्ञासा 26
तीसरा कर्मयोगशास्त्र 46
चौथा आधिभौतिक सुखवाद 67
पाँचवाँ सुखदु:खविवेक 86
छठा आधिदैवतपक्ष और क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विचार 112
सातवाँ कापिल सांख्यशास्त्र अथवा क्षराक्षर-विचार 136
आठवाँ विश्व की रचना और संहार 155
नवाँ अध्यात्म 178
दसवाँ कर्मविपाक और आत्मस्वातंत्र्य 255
ग्यारहवाँ संन्यास और कर्मयोग 293
बारहवाँ सिद्धावस्था और व्यवहार 358
तेरहवाँ भक्तिमार्ग 397
चौदहवाँ गीताध्यायसंगति 436
पन्द्रहवाँ उपसंहार 468
परिशिष्ट गीता की बहिरंगपरीक्षा 509
- अंतिम पृष्ठ 854

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