गीता रहस्य -तिलक पृ. 328

गीता रहस्य अथवा कर्मयोग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक

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ग्यारहवाँ प्रकरण

यदि कुम्‍हार घड़े और जुलाहा कपड़े तैयार न करेगा, तो राजा के द्वारा योग्‍य रक्षण होने पर भी लोकसंग्रह का काम पूरा न हो सकेगा; अथवा यदि रेल का कोई अदना झण्‍डीवाला या पाइंटसमेन अपना कर्त्‍तव्‍य न करे, तो जो रेलगाड़ी आज कल वायु की चाल से रात दिन बेखटके दौड़ा करती है, वह फिर ऐसा कर न सकेगी। अत: वेदान्‍त सूत्रकर्ता ही उल्लिखित उक्ति प्रयुक्तियों से अब यह निष्‍पन्‍न, कि व्‍यास प्रवृत्ति बड़े-बडे अधिकारियों को ही नहीं प्रत्‍युत अन्‍य पुरुषों को भी–फिर वह चाहे राजा हो या रंक–लोकसंग्रह करने के लिये जो छोटे बड़े अधिकार यथा न्‍याय प्राप्‍त हुए हैं, उनको ज्ञान के पश्‍चात भी छोड़ नहीं देना चाहिये, किन्‍तु उन्‍हीं अधिकारों को निष्‍काम बुद्धि से अपना कर्त्‍तव्‍य समझ यथाशक्ति, यथामति और यथासम्‍भव जीवन पर्यन्‍त करते जाना चाहिये। यह कहना ठीक नहीं कि मैं न सही तो कोई दूसरा उस काम को करेगा। क्‍योंकि ऐसा करने से समूचे काम में जितने पुरुषों की आवश्‍यकता है, उनमें से एक घट जाता है और संघशक्ति कम ही नहीं हो जाती, बल्कि ज्ञानी पुरुष उसे जितनी अच्‍छी रीति से करेगा, उतनी अच्‍छी रीति से और के द्वारा उसका होना शक्‍य नहीं; फलत: इस हिसाब से लोकसंग्रह भी अधूरा ही रह जाता है। इसके अतिरिक्‍त, कह आये हैं, कि ज्ञानी पुरुष के कर्मत्‍यागरूपी उदाहरण से लोगों की बुद्धि भी बिगड़ती है।

कभी कभी संन्‍यास मार्ग वाले कहा करते हैं, कि कर्म से चित्‍त की शुद्धि हो जाने के पश्‍चात अपने आत्‍मा की मोक्ष-प्राप्ति से ही संतुष्‍ट रहना चाहिये, संसार का नाश भले ही हो जावे पर उसकी कुछ परवा नहीं करनी चाहिये- ‘’लोकसंग्रहधर्मञ्च नैव कुर्यान्न कारयेत्’’ अर्थात् न तो लोकसंग्रह करे और न करावे[1]। परन्‍तु ये लोग व्‍यास प्रमुख महात्‍माओं के व्‍यवहार की जो उपपत्ति बतलाते हें उससे, और वसिष्‍ठ एवं पञ्चशिख प्रभृति ने राम तथा जनक आदि को अपने अपने अधिकार के अनुसार समाज के धारण पोषण इत्‍यादि के काम ही मरण पर्यन्‍त करने के लिये जो कहा है उससे, यही प्रगट होता है कि कर्म छोड़ देने का संन्‍यासमार्गवालों का उपदेश एकदेशीय है-सर्वथा सिद्ध होने वाला शास्‍त्रीय सत्‍य नहीं। अतएव कहना चाहिये, कि ऐसे एकपक्षीय उपदेश की ओर ध्‍यान न दे कर स्‍वयं भगवान के ही उदाहरण के अनुसार ज्ञान-प्राप्ति के पश्‍चात् भी अपने अधिकार को परख कर तदनुसार लोक-संग्रह-कारक कर्म जीवन भर करते जाना ही शास्‍त्रोंक्‍त और उत्‍तम मार्ग है; तथापि इस लोकसंग्रह को फलाशा रख कर न करे। क्‍योंकि लोकसंग्रह की ही बात क्‍यों न हो; पर फलाशा न रखने से, कर्म यदि निष्‍फल हो जाये तो, दु:ख हुए बिना न रहेगा।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. मभा. अश्‍व. अनुगीता. 49. 39

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गीता रहस्य अथवा कर्म योग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक
प्रकरण नाम पृष्ठ संख्या
पहला विषय प्रवेश 1
दूसरा कर्मजिज्ञासा 26
तीसरा कर्मयोगशास्त्र 46
चौथा आधिभौतिक सुखवाद 67
पाँचवाँ सुखदु:खविवेक 86
छठा आधिदैवतपक्ष और क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विचार 112
सातवाँ कापिल सांख्यशास्त्र अथवा क्षराक्षर-विचार 136
आठवाँ विश्व की रचना और संहार 155
नवाँ अध्यात्म 178
दसवाँ कर्मविपाक और आत्मस्वातंत्र्य 255
ग्यारहवाँ संन्यास और कर्मयोग 293
बारहवाँ सिद्धावस्था और व्यवहार 358
तेरहवाँ भक्तिमार्ग 397
चौदहवाँ गीताध्यायसंगति 436
पन्द्रहवाँ उपसंहार 468
परिशिष्ट गीता की बहिरंगपरीक्षा 509
- अंतिम पृष्ठ 854

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