गीता रहस्य -तिलक पृ. 323

गीता रहस्य अथवा कर्मयोग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक

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ग्यारहवाँ प्रकरण

ज्ञानी पुरुष को जो बात प्रमाणिक जँचती है, अन्‍य लोग भी उसे प्रमाण मान कर तदनुकूल व्‍यवहार किया करते हैं[1]। क्‍योंकि, साधारण लोगों की समझ है, कि शान्‍त चित्त और समबुद्धि से यह विचारने का काम ज्ञानी ही का है, कि संसार का धारण और पोषण कैसे होगा एवं तदनुसार धर्म-प्रबन्‍ध की मर्यादा बना देना भी उसी का काम है। इस समझ में कुछ भूल भी नहीं है। और यह भी कह सकते हैं कि सामान्‍य लोगों की समझा में ये बातें भली-भाँति नहीं आ सकतीं, इसीलिये तो वे ज्ञानी पुरुषों के भरोसे रहते हैं। इसी अभिप्राय को मन में लाकर शान्तिपर्व में युधिष्ठिर से भीष्‍म ने कहा है-

लोकसंग्रहसंयुक्‍तं विधात्रा विहितं पुरा।
सूक्ष्‍मधर्मार्थनियतं सतां चरितमुत्तमम्।।

अर्थात् ‘’लोकसंग्रहकारक और सूक्ष्‍म प्रसंगो पर धर्मार्थ का निर्णय कर देने वाला साधु पुरुषों का, उत्तम चरित स्‍वयं ब्रह्मदेव ने ही बनाया है’’[2]। ‘लोकसंग्रह’ कुछ ठाले बैठे की बेगार, ढकोसला, या लोगों को अज्ञान में डाले रखने की तरकीब नहीं है; किन्‍तु ज्ञान युक्‍त कर्म के संसार में न रहने से जगत् के नष्‍ट हो जाने की सम्‍भावना है इसलिये यही सिद्ध होता है, कि ब्रह्मदेव निर्मित साधु पुरुषों के कर्तव्‍यों में से ‘लोकसंग्रह’ एक प्रधान कर्तव्‍य है। और, इस भगवद्वचन का भावार्थ भी यही है, कि ‘’मैं यह काम न करूँ तो ये समस्‍त लोक अर्थात् जगत नष्‍ट हो जावेंगे’’[3]

ज्ञानी पुरुष सब लोगों के नेत्र हैं; यदि वे अपना काम छोड़ देंगे तो सारी दुनिया अन्‍धी हो जायेगी और इस संसार का सर्वतोपरि नाश हुए बिना न रहेगा। ज्ञानी पुरुषों को ही उचित है, कि लोगों को ज्ञानवान् कर उन्‍नत बनावें। परंतु यह काम सिर्फ मुँह हिला देने से अर्थात् कोरे उपदेश से कभी सिद्ध नहीं होता। क्‍योंकि, जिन्‍हें सदाचारण की आदत नहीं और जिनकी बुद्धि भी पूर्ण शुद्ध नहीं रहती, उन्‍हें यदि कोरा ब्रह्मज्ञान सुनाया जाय तो वे लोग उस ज्ञान का दुरुपयोग इस प्रकार करते देखे गये हैं- ‘’तेरा सो मेरा तो मेरा है ही।’’ इसके सिवा, किसी के उपदेश की सत्‍यता की जांच भी तो लोग उसके आचरण से ही किया करते हैं। इसलिये, यदि ज्ञानी पुरुष स्‍वयं कर्म न करेगा, तो वह सामन्‍य लोगों को आलसी बनाने का एक बहुत बड़ा कारण हो जायेगा। इसे ही ‘बुद्धिभेद’ कहते हैं; और यह बुद्धि भेद न होने पावे तथा सब लोग, सचमुच निष्‍काम हो कर अपना कर्तव्‍य करने के लिये जागृत हो जावें इसलिये, संसार में ही रह कर अपने कर्मों से सब लोगों को सदाचरण की-निष्‍काम बुद्धि से कर्म करने की–प्रत्यक्ष शिक्षा देना ज्ञानी पुरुष का कर्तव्‍य ( ढोंग नहीं ) हो जाता है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. गी. 3. 21
  2. मभा. शां. 258; 25
  3. गी. 3. 24

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गीता रहस्य अथवा कर्म योग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक
प्रकरण नाम पृष्ठ संख्या
पहला विषय प्रवेश 1
दूसरा कर्मजिज्ञासा 26
तीसरा कर्मयोगशास्त्र 46
चौथा आधिभौतिक सुखवाद 67
पाँचवाँ सुखदु:खविवेक 86
छठा आधिदैवतपक्ष और क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विचार 112
सातवाँ कापिल सांख्यशास्त्र अथवा क्षराक्षर-विचार 136
आठवाँ विश्व की रचना और संहार 155
नवाँ अध्यात्म 178
दसवाँ कर्मविपाक और आत्मस्वातंत्र्य 255
ग्यारहवाँ संन्यास और कर्मयोग 293
बारहवाँ सिद्धावस्था और व्यवहार 358
तेरहवाँ भक्तिमार्ग 397
चौदहवाँ गीताध्यायसंगति 436
पन्द्रहवाँ उपसंहार 468
परिशिष्ट गीता की बहिरंगपरीक्षा 509
- अंतिम पृष्ठ 854

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