गीता रहस्य -तिलक पृ. 321

गीता रहस्य अथवा कर्मयोग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक

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ग्यारहवाँ प्रकरण

वैराग्‍य से कर्म करना ही यदि अशक्‍य हो, तो बात निराली है। परन्‍तु हम प्रत्‍यक्ष देखते हैं कि वैराग्‍य से भली-भाँति कर्म किये जा सकते हैं; इतना ही क्‍यों, यह भी प्रगट है कि कर्म किसी के छूटते ही नहीं। इसी लिये, अज्ञानी लोग जिन कर्मों को फलाशा से किया करते हैं, उन्‍हें ही ज्ञानी पुरुष ज्ञान-प्राप्ति के बाद भी लाभ-अलाभ तथा सुख-दु:ख को एक सा मान कर[1] धैर्य एवं उत्‍साह से, किन्‍तु शुद्ध-बुद्धि से फल के विषय में विरक्त या उदासीन रह कर[2]) केवल कर्त्तव्‍य मान अपने अपने अधिकारानुसार शान्‍त चित्त से करते रहें[3]। नीति और मोक्ष की दृष्टि से उत्तम जीवन-क्रम का यही सच्चा तत्त्व है। अनेक स्थितप्रज्ञ, महाभगवद्रक्त और परम ज्ञानी पुरुषों ने–एवं स्‍वयं भगवान ने भी–इसी मार्ग को स्‍वीकार किया है। भगवद्गीता पुकार कर कहती है, कि इस कर्मयोगमार्ग में ही पराकाष्ठा का पुरुषार्थ या परमार्थ है, इसी ‘योग’ से परमेश्‍वर का भजन-पूजन होता है और अन्‍त में सिद्धि भी मिलती है[4]

इतने पर भी यदि कोई स्‍वयं जान बूझ कर गै़र समझ कर ले, तो उसे दुदैंवी कहना चाहिये। स्‍पेन्‍सर साहब को यद्यपि अध्‍यात्‍म दृष्टि सम्‍मत न थी; तथापि उन्‍होंने भी अपने ‘समाजशास्‍त्र का अभ्‍यास’ नामक ग्रन्‍थ के अन्‍त में, गीता के समान ही, यह सिद्धान्‍त किया है;- यह बात आधिभौतिक रीति से भी सिद्ध है कि जगत् में किसी भी काम को एकदम कर गुजरना शक्‍य नहीं, उस के लिये कारणीभूत और आवश्‍यक दूसरी हजा़रों बातें पहले जिस प्रकार हुई होंगी उसी प्रकार मनुष्‍य के प्रयत्‍न सफल, निष्‍फल या न्‍यूनाधिक सफल हुआ करते हैं; इस कारण यद्यपि साधारण मनुष्‍य किसी भी काम के करने में फलाशा से ही प्रवृत होते हैं, तथापि बुद्धिमान पुरुष को शान्ति और उत्‍साह से, फल-संबंधी आग्रह छोड़ कर, अपना कर्तव्‍य करते रहना चाहिये[5]

यद्यपि यह सिद्ध हो गया,कि ज्ञानी पुरुष इस संसार में अपने प्राप्त कर्मों को फलाशा छोड़ कर निष्काम बुद्धि से आमरणांत अवश्य करता रहे तथापि यह बतलाये बिना कर्मयोग का विवेचन पूरा नहीं होता,कि ये कर्म किससे और किस लिये प्राप्त होते हैं? अतऐव भगवान्‌ ने कर्मयोग के समर्थनार्थ अर्जुन को अंतिम और महत्त्व का उपदेश दिया कि " लोकसंग्रहमेवापि संपश्यन्‌ कर्त्तुमर्हसि" [6]लोकसंग्रह की ओर दृष्टि देकर भी तुझे कर्म करना ही उचित है। लोकसंग्रह का यह अर्थ नहीं कि कोई ज्ञानी पुरुष ‘मनुष्‍यों का केवल जमघट करे’ अथवा यह अर्थ भी नहीं कि ‘स्‍वयं कर्मत्‍याग का अधिकारी होने पर भी इसलिये कर्म करने का ढोंग करे कि अज्ञानी मनुष्‍य कहीं कर्म न छोड़ बैठें और उन्‍हें अपनी (ज्ञानी पुरुष की) कर्म-तत्‍परता अच्‍छी लगे।’ कयोंकि गीता का यह सिखलाने का हेतु नहीं, कि लोग अज्ञानी या मूर्ख बने रहें, अथवा उन्‍हें ऐसे ही बनाये रखने के लिये ज्ञानी पुरुष कर्म करने का ढोंग किया करें। ढोंग तो दूर ही रहा; परन्‍तु ‘लोग तेरी अपकीर्ति गावेंगे’[7] इत्‍यादि सामान्‍य लोगों को जँचनेवाली युक्तियों से भी जब अर्जुन का समाधान न हुआ, तब भगवान् उन युक्तियों से भी अधिक ज़ोरदार और तत्त्वज्ञान की दृष्टि से अधिक बलवान् कारण अब कह रहे हैं।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. गी.2. 38
  2. गी.18.26
  3. गी.6.3
  4. गी.18.46
  5. ” Thus admitting that for the fanatic, some wild anticipation is needful as a stimulus, and recognizing the usefulness of his delusion as adapted to his particular nature and his particular function, the man of higher type must be content with greatly moderated expectations, while he perseveres with undiminished efforts. He has to see how comparatively little can be done, and yet to find it worth while to do that little: so uniting philanthropic energy with philosophic calm.” –Spencer’s study of Sociology, 8th Ed. p. 403. The italics are onrs. इस वाक्‍य में fanatics के स्‍थान में ‘प्रकृति के गुणों से विमूढ़’ (गी.3.29) या अहंकारविमूढ़’ (गी.3.27) अथवा भास कवि का ‘मूर्ख’ शब्‍द और man of higher type के स्‍थान में ‘विद्वान’ (गी.3. 25) एवं greatly moderated expectations के स्‍थान में ‘फलौदा‍सन्यि’ अथवा ‘फलाशात्‍याग’ इन समानार्थी शब्‍दों की योजना करने से ऐसा देख पड़ेगा कि स्‍पेन्‍सर साहब ने मानो गीता के ही सिद्धान्‍त का अनुवाद कर दिया है।
  6. गी. 3. 20
  7. गी. 2.34

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प्रकरण नाम पृष्ठ संख्या
पहला विषय प्रवेश 1
दूसरा कर्मजिज्ञासा 26
तीसरा कर्मयोगशास्त्र 46
चौथा आधिभौतिक सुखवाद 67
पाँचवाँ सुखदु:खविवेक 86
छठा आधिदैवतपक्ष और क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विचार 112
सातवाँ कापिल सांख्यशास्त्र अथवा क्षराक्षर-विचार 136
आठवाँ विश्व की रचना और संहार 155
नवाँ अध्यात्म 178
दसवाँ कर्मविपाक और आत्मस्वातंत्र्य 255
ग्यारहवाँ संन्यास और कर्मयोग 293
बारहवाँ सिद्धावस्था और व्यवहार 358
तेरहवाँ भक्तिमार्ग 397
चौदहवाँ गीताध्यायसंगति 436
पन्द्रहवाँ उपसंहार 468
परिशिष्ट गीता की बहिरंगपरीक्षा 509
- अंतिम पृष्ठ 854

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