गीता रहस्य -तिलक पृ. 312

गीता रहस्य अथवा कर्मयोग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक

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ग्यारहवाँ प्रकरण

बस; इस प्रकार बर्ताव करने से मोक्ष में कोई प्रतिबन्‍ध न आवेगा; और उक्‍त दोनों भागों को जोड़ा आपस में मिल जाने से सृष्टि के किसी भाग की उपेक्षा या विच्‍छेद करने का दोष भी न लगेगा; तथा ब्रह्मसृष्टि एवं मायासृष्टि–परलोक और इहलोक–दोनों के कर्तत्त्व्य-पालन का श्रेय भी मिल जायगा। ईशोपनिषद में इसी तत्त्व का प्रतिपादन है[1]। इन श्रुतिवचनों का आगे विस्‍तार सहित विचार किया जावेगा। यहाँ इतना ही कह देते हैं, कि गीता में जो कहा है कि ‘’ ब्रह्मात्‍मैक्‍य के अनुभवी ज्ञानी पुरुष मायासृष्टि के व्‍यवहार केवल शरीर अथवा केवल इन्द्रियों से ही किया करते हैं ‘’[2] उसका तात्‍पर्य भी वही है; और इसी उद्देश से अठारहवें अध्‍याय में सिद्धान्‍त किया है, कि ‘’ निस्संग बुद्धि से, फलाशा छोड़ कर, केवल कर्त्तव्य समझ कर, कर्म करना ही सच्‍चा ‘ सात्त्विक ‘ कर्मत्‍याग है ‘’–कर्म छोड़ना सच्‍चा कर्मत्‍याग नहीं है[3]। कर्म माया‍सृष्टि के ही क्‍यों न हों, परन्‍तु किसी अगम्‍य उद्देश से परमेश्‍वर ने ही तो उन्‍हें बनाया है; उनको बन्‍द करना मनुष्‍य के अधिकार की बात नहीं, वह परमेश्‍वर के अधीन है; अतएव यह बात निर्विवाद है, कि बुद्धि को नि:संग रख कर केवल शरीर कर्म करने से वे मोक्ष के बाधक नहीं होते।

अब चित्त को विरक्‍त कर केवल इन्द्रियों से शास्‍त्र-सिद्ध कर्म करने में हानि ही क्‍या है? गीता में कहा ही है कि–“न हि कश्चित्‌ क्षणमपि जातु तिष्‍ठत्‍यकर्मकृत“[4]–इस जगत में कोई एक क्षण भर भी बिना कर्म के रह नहीं सकता; और अनुगीता में कहा है “नैष्‍कम्‍यै न च लोकेऽस्मिन् मुहुर्तमपि लभ्‍यते “[5]- इस लोक में ( किसी के भी ) घडी़ भर के लिये भी कर्म नहीं छूटते। मनुष्‍यों की तो बिसात ही क्‍या, सूर्य-चन्‍द्र प्रभृति भी निरन्‍तर कर्म ही करते रहते हैं। अधिक क्‍या कहें , यह निश्‍चित सिद्धान्‍त है कि कर्म ही सृष्टि और सृष्टि ही कर्म है; इसी लिये हम प्रत्‍यक्ष देखते हैं कि सृष्टि की घटनाओं को (अथवा कर्म को) क्षण भर के लिये भी विश्राम नहीं मिलता। देखिये, एक ओर भगवान गीता में कहते हैं “ कर्म छोड़ने से खाने को भी न मिलेगा“[6]; दूसरी ओर वनपर्व में द्रौपदी युधिष्ठिर से कहती है “अकर्मणा वे भूतानां वृत्ति: स्‍यान्‍नहि काचन“ [7] अर्थात कर्म के बिना प्राणिमात्र का निर्वाह नहीं; और इसी प्रकार दासबोध में, पहले ब्रह्मज्ञान बतला कर, श्रीसमर्थ रामदास स्‍वमी कहते हैं “ यदि प्रपंच्‍च छोड़ कर परमार्थ करोगे, तो खाने के लिये अन्‍न भी न मिलेगा”[8]

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. ईश. 11
  2. गी. 4. 21; 5. 12
  3. गी.18.9
  4. गी.3. 5;18.11
  5. अश्‍व.20.7
  6. गी.3.8
  7. वन.32.8
  8. दा.12.1. 3

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प्रकरण नाम पृष्ठ संख्या
पहला विषय प्रवेश 1
दूसरा कर्मजिज्ञासा 26
तीसरा कर्मयोगशास्त्र 46
चौथा आधिभौतिक सुखवाद 67
पाँचवाँ सुखदु:खविवेक 86
छठा आधिदैवतपक्ष और क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विचार 112
सातवाँ कापिल सांख्यशास्त्र अथवा क्षराक्षर-विचार 136
आठवाँ विश्व की रचना और संहार 155
नवाँ अध्यात्म 178
दसवाँ कर्मविपाक और आत्मस्वातंत्र्य 255
ग्यारहवाँ संन्यास और कर्मयोग 293
बारहवाँ सिद्धावस्था और व्यवहार 358
तेरहवाँ भक्तिमार्ग 397
चौदहवाँ गीताध्यायसंगति 436
पन्द्रहवाँ उपसंहार 468
परिशिष्ट गीता की बहिरंगपरीक्षा 509
- अंतिम पृष्ठ 854

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