गीता रहस्य -तिलक पृ. 311

गीता रहस्य अथवा कर्मयोग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक

Prev.png
ग्यारहवाँ प्रकरण

ऐसी अवस्‍था में यह अर्थ आप ही आप प्रगट होता है, कि ऐसे कच्‍चे मनोनिग्रह को चित्तशुद्धि के द्वारा पूर्ण करने के लिये, निष्‍काम बुद्धि बढ़ानेवाले यज्ञ, दान प्रभृति गृहस्‍थाश्रम के श्रौत या स्‍मार्त कर्म ही उस मनुष्‍य को करना चाहिये। सारांश, ऐसा कर्मत्‍याग कभी श्रेयस्‍कर नहीं होता। यदि कहें, कि मन निर्विषय है और वह उसके अधीन है, तो फिर उसे कर्म का डर किस लिये है अथवा, कर्मों के ने करने का व्‍यर्थ आग्रह ही वह क्‍यों करेॽ बरसाती छत्ते की परीक्षा जिस प्रकार पानी में ही होती है उसी प्रकार या– विकारहेतौ सति विक्रियंते, येषां न चेतांसि त एव धीरा:। ‘’ जिन कारणों से विकार उत्‍पन्‍न होता है, वे कारण अथवा विषय दृष्टि से आगे रहने पर भी, जिनका अन्‍त:करण मोह के पंजे में नहीं फंसता, वे ही पुरुष धैर्यशाली कहे जाते हैं ‘’[1]- कालिदास के इस व्‍यापक न्‍याय से, कर्मों के द्वारा ही मनोनिग्रह की जांच हुआ करती है और स्‍वंय कार्यकर्ता को तथा और लोगों को भी ज्ञात हो जाता है, कि मनोनिग्रह पूर्ण हुआ या नहीं।

इस दृष्टि से भी यही सिद्ध होता है, कि शास्‍त्र से प्राप्‍त ( अर्थात प्रवाह-पतित ) कर्म ही करना चाहिये[2]। अच्‍छा, यदि कहो, कि ‘’ मन वश में है और यह डर भी नहीं, कि जो चित्तशुद्धि प्राप्‍त हो चुकी है, वह कर्म करने से बिगड़ जावेगी; परन्‍तु ऐसे व्‍यर्थ कर्म करके शरीर को कष्‍ट देना चाहते कि जो मोक्ष-प्राप्ति के लिये आवश्‍यक है; तो वह कर्मत्‍याग ' राजस ' कहलावेगा, क्‍योंकि यह काय-क्‍लेश का भय कर केवल इस क्षुद्र बुद्धि से किया गया है कि देह को कष्‍ट होगा; और, त्‍याग से जो फल मिलना चाहिये वह ऐसे ‘ राजस ‘ कर्मत्‍यागी को नहीं मिलता[3]। फिर यही प्रश्‍न है कि कर्म छोड़े ही क्‍योंॽ यदि कोई कहे कि, ‘ सब कर्म माया सृष्टि के हैं, अतएव अनित्‍य हैं, इससे इन कर्मों की झंझट में पड़ जाना, ब्रह्मसृष्टि के नित्‍य आत्‍मा को उचित नहीं ‘ तो यह भी ठीक नहीं है; क्‍योंकि जब स्‍वंय परब्रह्म ही माया से आच्‍छादित है, तब यदि मनुष्‍य भी उसी के अनुसार माया में व्‍यवहार करे तो क्‍या हानि हैॽ मायासृष्टि और ब्रह्मसृष्टि के भेद से जिस प्रकार इस जगत् के दो भाग किये गये है; उसी प्रकार आत्‍मा और देहेन्द्रियों के भेद से मनुष्‍य के भी दो भाग हैं। इनमें से, आत्‍मा और ब्रह्म का संयोग करके ब्रह्म में आत्‍मा का लय कर दो और इस ब्रह्मात्‍मैक्‍य ज्ञान से बुद्धि को नि:संग रख कर केवल मायिक देहेन्द्रियों द्वारा माया‍सृष्टि के व्‍यवहार किया करो।

Next.png

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. कुमार.1. 59
  2. गी.18. 6
  3. गी.18. 8

संबंधित लेख

गीता रहस्य अथवा कर्म योग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक
प्रकरण नाम पृष्ठ संख्या
पहला विषय प्रवेश 1
दूसरा कर्मजिज्ञासा 26
तीसरा कर्मयोगशास्त्र 46
चौथा आधिभौतिक सुखवाद 67
पाँचवाँ सुखदु:खविवेक 86
छठा आधिदैवतपक्ष और क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विचार 112
सातवाँ कापिल सांख्यशास्त्र अथवा क्षराक्षर-विचार 136
आठवाँ विश्व की रचना और संहार 155
नवाँ अध्यात्म 178
दसवाँ कर्मविपाक और आत्मस्वातंत्र्य 255
ग्यारहवाँ संन्यास और कर्मयोग 293
बारहवाँ सिद्धावस्था और व्यवहार 358
तेरहवाँ भक्तिमार्ग 397
चौदहवाँ गीताध्यायसंगति 436
पन्द्रहवाँ उपसंहार 468
परिशिष्ट गीता की बहिरंगपरीक्षा 509
- अंतिम पृष्ठ 854

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                                 अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र    अः