गीता रहस्य -तिलक पृ. 299

गीता रहस्य अथवा कर्मयोग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक

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ग्यारहवाँ प्रकरण

गीता पर जो संन्‍यासमार्गीय टीकाएं हैं उनमें, हमारी समझ से, यही मुख्‍य दोष है। और, टीकाकारों के इस साम्‍प्रदायिक आग्रह से छूटे बिना कभी सम्‍भव नहीं, कि गीता के वास्‍तविक रहस्‍य का बोध हो जावे। यदि यह निश्‍चय करें, कि कर्मसंन्‍यास और कर्मयोग दोनो स्‍वतन्‍त्र रीति से मोक्षदायक हैं– एक दूसरे का पूर्वाह नहीं– तो भी पूरा निर्वाह नहीं होता। क्‍योंकि, यदि दोनों मार्ग एक ही से मोक्षदायक हैं, तो कहना पड़ेगा, कि जो मार्ग हमें पसन्‍द होगा उसे हम स्‍वीकार करेंगे। और फिर यह सिद्ध न हो कर कि अर्जुन को युद्ध ही करना चाहिये, ये दोनों पक्ष सम्‍भव होते हैं, कि भगवान के उपदेश से परमेश्‍वर का ज्ञान होने पर भी चाहे वह अपनी रुचि के अनुसार युद्ध करे अथवा लड़ना-मरना छोड़कर संन्‍यास ग्रहण कर ले। इसीलिये अर्जुन ने स्‍वाभाविक रीति से यह सरल प्रश्‍न किया है, कि “इन दोनों मार्गों में जो अधिक प्रशस्‍त हो, वह एक ही निश्‍चय से मुझे बतलाओ”[1] जिससे आचरण करने में कोई गड़बड़ न हो। गीता के पांचवें अध्‍याय के आरम्‍भ में इस प्रकार अर्जुन के प्रश्‍न कर चुकने पर अगले श्‍लोकों में भगवान ने स्‍पष्‍ट उत्‍तर दिया है, कि “संन्‍यास और कर्मयोग दोनों मार्ग नि:श्रेयस अर्थात मोक्षदायक है अथवा मोक्षदृष्टि से एक सी योग्‍यता के हैं; तो भी दोनों में कर्मयोग की श्रेष्‍ठता या योग्‍यता विशेष है (विशिष्‍यते)[2]; और यही श्‍लोक हमने इस प्रकरण के आरम्‍भ में लिखा है। कर्मयोग की श्रेष्‍ठता के सम्‍बन्‍ध में यही एक वचन गीता में नहीं है; किन्‍तु अनेक वचन हैं; जैसे “तस्‍माधोगाय युज्‍यस्‍व”[3]– इसलिये तू कर्मयोग को ही स्‍वीकार कर; “मा ते संगोऽस्‍त्‍वकर्मणि”[4]– कर्म न करने का आग्रह मत रख;

यस्त्विद्रियाणि मनसा नियम्‍यारभतेऽर्जुन।
कर्मेन्द्रियै: कर्मयोगमसक्‍त: स विशिष्‍यते।।

कर्मों को छोड़ने के झगडे़ में न पड़कर “इन्द्रियों को मन से रोक कर अनासक्‍त बुद्धि के द्वारा कर्मेन्द्रियों से कर्म करने की योग्‍यता ‘विशिष्‍यते’ अर्थात विशेष है”[5]; क्‍योंकि, कभी क्‍यों न हो, “कर्म ज्‍यायो ह्यकर्मणा:” अकर्म की अपेक्षा कर्म श्रेष्‍ठ है[6]; “इससे तू कर्म ही कर’’[7] अथवा “योगमातिष्‍ठोत्तिष्‍ठ”[8]– कर्मयोग को अंगीकर कर युद्ध के लिये खड़ा हो; (योगी) ज्ञानिम्‍योऽपि मतोऽधिक: – ज्ञान मार्गवाले (संन्‍यासी) की अपेक्षा कर्मयोगी की योग्‍यता अधिक है; “तस्‍माद्योगी भवार्जुन”[9]– इसलिये, हे अर्जुन। तू (कर्म) ऽयोगी हो; अथवा “मामनुस्‍मर युद्धय च” [10]– मन में मेरा स्‍मरण रख कर युद्ध कर; इत्‍यादि अनेक वचनों से गीता में अर्जुन को जो उपदेश स्‍थान-स्‍थान पर दिया गया है, उसमें भी संन्‍यास या अकर्म की अपेक्षा कर्मयोग की अधिक योग्‍यता दिखलाने के लिय, ‘ज्‍याय:’, ‘अधिक:’ , और ‘विशिष्‍यते’ इत्‍यादि पद स्‍पष्‍ट हैं।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. गी. 5.1
  2. गी. 5.2
  3. गी. 2. 50
  4. गी. 2. 47
  5. गी.3.7
  6. गी. 3. 8
  7. गी. 4.15
  8. गी. 4. 42
  9. गी.6. 46
  10. गी. 8.7

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गीता रहस्य अथवा कर्म योग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक
प्रकरण नाम पृष्ठ संख्या
पहला विषय प्रवेश 1
दूसरा कर्मजिज्ञासा 26
तीसरा कर्मयोगशास्त्र 46
चौथा आधिभौतिक सुखवाद 67
पाँचवाँ सुखदु:खविवेक 86
छठा आधिदैवतपक्ष और क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विचार 112
सातवाँ कापिल सांख्यशास्त्र अथवा क्षराक्षर-विचार 136
आठवाँ विश्व की रचना और संहार 155
नवाँ अध्यात्म 178
दसवाँ कर्मविपाक और आत्मस्वातंत्र्य 255
ग्यारहवाँ संन्यास और कर्मयोग 293
बारहवाँ सिद्धावस्था और व्यवहार 358
तेरहवाँ भक्तिमार्ग 397
चौदहवाँ गीताध्यायसंगति 436
पन्द्रहवाँ उपसंहार 468
परिशिष्ट गीता की बहिरंगपरीक्षा 509
- अंतिम पृष्ठ 854

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