गीता रहस्य -तिलक पृ. 297

गीता रहस्य अथवा कर्मयोग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक

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ग्यारहवाँ प्रकरण

संन्‍यास या चतुर्थाश्रम शब्‍दों की अपेक्षा कर्मसंन्‍यास अथवा कर्मत्‍याग शब्‍द यहाँ अधिक अन्‍वर्थक और नि:सन्दिग्‍ध हैं। परन्‍तु इन दोनों की अपेक्षा सिर्फ संन्‍यास शब्‍द के व्‍यवहार की अधिक रीति होने के कारण उसके पारिभाषिक अर्थ का यहाँ विवरण किया गया है। जिन्‍हे इस संसार के व्‍यवहार नि:सार प्रतीत होते हैं, वे उससे निवृत हो अरण्‍य में जा कर स्‍मृति-धर्मानुसार चतुर्थाश्रम में प्रवेश करते हैं, इससे कर्मत्‍याग के इस मार्ग को संन्‍यास कहते हैं। परन्‍तु इसमें प्रधान भाग कर्मत्‍याग ही है, गेरूवे कपड़े नहीं। यद्यपि इस प्रकार इन दोनों पक्षों का प्रचार हो कि पूर्ण ज्ञान होने पर आगे कर्म करो (कर्मयोग) या कर्म छोड़ दो (कर्मसंन्‍यास), तथापि गीता के साम्‍प्रदायिक टीकाकारों ने अब यहाँ यह प्रश्‍न छेड़ा है, कि क्‍या अन्‍त में मोक्ष्‍ा-प्राप्ति कर देने के लिये ये दोनों मार्ग स्‍वतन्‍त्र अर्थात, एक से समर्थ हैं; अथवा, कर्मयोग केवल पूर्वागं यानी पहली सीढ़ी है और अन्तिम मोक्ष की प्राप्ति के लिये कर्म छोड़ कर संन्‍यास लेना ही चाहियेॽ

गीता के दूसरे और तीसरे अध्‍यायों में जो वर्णन है, उससे जान पड़ता है कि ये दोनों मार्ग स्‍वतंत्र हैं। परन्‍तु जिन टीकाकारों का मत है, कि कभी न कभी संन्‍यास आश्रम को अंगीकारकर समस्‍त सांसारिक कर्मों को छोड़े बिना मोक्ष नहीं मिल सकता– और जो लोग इसी बुद्धि से गीता की टीका करने में प्रवृत हुए हैं, कि यही बात गीता में प्रतिपादित की गई है– वे गीता का यह तात्‍पर्य निकालते हैं, कि “कर्मयोग स्‍वतन्‍त्र रीति से मोक्ष प्राप्ति का मार्ग नहीं है, पहले चित्त की शुद्धता के लिये कर्म कर अन्‍त में संन्‍यास ही लेना चाहिये, संन्‍यास ही अन्तिम मुख्‍य निष्‍ठा है। परन्‍तु इस अर्थ को स्‍वीकार कर लेने से भगवान ने जो यह कहा है, कि सांख्‍य (संन्‍यास) और योग (कर्मयोग) द्विविध अर्थात दो प्रकार की निष्‍ठाएं इस संसार में हैं ‘[1], उस द्विविध पद का स्‍वास्‍थ्य बिलकुल नष्‍ट हो जाता है। कर्मयोग शब्‍द के तीन अर्थ हो सकते है:-

  1. पहला अर्थ यह है कि ज्ञान हो या न हो, चातुर्वणर्य के यज्ञ-त्‍याग आदि कर्म अथवा श्रुति-स्‍मृति वर्णित कर्म करने से ही मोक्ष मिलता है। परन्‍तु मीमासंकों का यह पक्ष गीता को मान्‍य नहीं[2]
  2. दूसरा अर्थ यह है कि चित्त-शुद्धि के लिये कर्म करने (कर्मयोग) की आवश्‍यकता है इसलिये[3] केवल चित्तशुद्धि के निमित ही कर्म करना चाहिये। इस अर्थ के अनुसार कर्मयोग संन्‍यासमार्ग का पूर्वांग हो जाता है; परन्‍तु यह गीता में वर्णित कर्मयोग नहीं है।
  3. जो जानता है, कि मेरे आत्‍मा का कल्‍याण किस में है, वह ज्ञानी पुरुष स्‍वधर्मोक्‍त युद्धादि सांसारिक कर्म मृत्‍यु पर्यन्‍त करे या न करे, यही गीता में मुख्‍य प्रश्‍न है और इसका उत्‍तर यही है कि ज्ञानी पुरुष को भी चातुर्वणर्य के सब कर्म निष्‍काम-बुद्धि से करना ही चाहिये[4]
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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. गी. 3. 3
  2. गी. 2.45
  3. गी. र. 39
  4. गी.3. 25

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गीता रहस्य अथवा कर्म योग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक
प्रकरण नाम पृष्ठ संख्या
पहला विषय प्रवेश 1
दूसरा कर्मजिज्ञासा 26
तीसरा कर्मयोगशास्त्र 46
चौथा आधिभौतिक सुखवाद 67
पाँचवाँ सुखदु:खविवेक 86
छठा आधिदैवतपक्ष और क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विचार 112
सातवाँ कापिल सांख्यशास्त्र अथवा क्षराक्षर-विचार 136
आठवाँ विश्व की रचना और संहार 155
नवाँ अध्यात्म 178
दसवाँ कर्मविपाक और आत्मस्वातंत्र्य 255
ग्यारहवाँ संन्यास और कर्मयोग 293
बारहवाँ सिद्धावस्था और व्यवहार 358
तेरहवाँ भक्तिमार्ग 397
चौदहवाँ गीताध्यायसंगति 436
पन्द्रहवाँ उपसंहार 468
परिशिष्ट गीता की बहिरंगपरीक्षा 509
- अंतिम पृष्ठ 854

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