गीता रहस्य अथवा कर्मयोग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक
ग्यारहवाँ प्रकरण
अर्जुन का यह प्रश्न कुछ अपूर्व नहीं है। योगवासिष्ठ[1] में श्रीरामचन्द्र ने वसिष्ठ से, और गणोशगीता[2] में वेराग्य राजा ने गणेशजी से यही प्रश्न किया है। केवल हमारे ही यहाँ नहीं, वरन् यूरोप के उस ग्रीस देश में भी, कि जहाँ तत्वज्ञान के विचार पहले पहल शुरू हुए थे, प्राचीन काल में, यही प्रश्न उपस्थित हुआ था। यह बात अरिस्टाटल के ग्रन्थ से प्रगट होती है। इस प्रसिद्ध यूनानी ज्ञानी पुरुष ने अपने नितिशास्त्र सम्बन्धी ग्रंन्थ के अन्त[3] में यही प्रश्न किया है और प्रथम अपनी यह सम्म्ति दी है, कि संसार के या राजकाज के मामलों में जिन्दगी बिताने की अपेक्षा ज्ञानी पुरुष को शांति से तत्व विचारों में जीवन बिताना ही सच्चा और पूर्ण आनन्ददायक है। तो भी इसके अनन्तर लिखे गये अपने राजधर्म-सम्बन्धी ग्रन्थ[4] में अरिस्टाटल ही लिखता है कि “कुछ ज्ञानी पुरुष तत्व–विचार में, तो कुछ राजनैतिक कार्यों में, निमग्न देख पड़ते है; और पूछने पर कि इन दोनों मार्गों में कौन बहुत अच्छा है, यही कहना पड़ेगा कि प्रत्येक मार्ग अंशत: सच्चा है। तथापि, कर्म की अपेक्षा अकर्म को अच्छा कहना भूल है[5]यह कहने में कोई हानि नहीं, कि आनन्द भी तो एक कर्म ही है और सच्ची श्रेय:प्राप्ति भी अनेक अंशो में ज्ञानयुक्त तथा नितियुक्त कर्मों में ही है। “दो स्थानों पर अरिस्टाटल के भिन्न भिन्न मतों को देख गीता के इस स्पष्ट कथन का महत्व पाठकों के ध्यान में आ जावेगा, कि “कर्म ज्यायो ह्मकर्मण:”[6]– अकर्म की अपेक्षा कर्मश्रेष्ठ है। गत शताब्दी का प्रसिद्ध फ्रेंच पंडित आगस्टस कोंट अपने आधिभौतिक तत्वज्ञान में कहता है “यह कहना भ्रान्तिमूलक है, कि तत्वविचारों ही में निमग्न रह कर जिन्दगी बिताना श्रेयस्कर है। जो तत्वज्ञ पुरुष इस ढंग के आयुष्यक्रम को अंगीकार करता है और अपने हाथ से होने योग्य लोगों का कल्याण करना छोड़ देता है उसके विषय में यही कहना चाहिये कि वह अपने प्राप्त साधनों का दुरुपयोग करता है।" विपक्ष में जर्मन तत्त्ववेत्ता शोपेनहर ने कहा है, कि संसार के समस्त व्यवहार– यहाँ तक कि जीवित रहना भी– दु:खमय है इसलिये तत्त्वज्ञान प्राप्त कर इन सब कर्मों का, जितनी जल्दी हो सके, नाश करना ही इस संसार में मनुष्य का सच्चा कर्तव्य है। कोंट सन 1857 ई० में, और शोपेनहर सन 1860 ई० में संसार से विदा हुए। शोपेनहर का पन्थ जर्मनी में हार्टमेन ने जारी रखा है। कहना नहीं होगा, कि स्पेन्सर और मिल प्रभृति अंग्रेज तत्त्वशास्त्रज्ञों के मत कोंट के ऐसे हैं। परन्तु इन सब के आगे बढ़कर, हाल ही के जमाने के आधिभौतिक जर्मन पण्डित निट्शे ने, अपने ग्रन्थों में, कर्म छोड़नेवालों पर ऐसे तीव्र कटाक्ष किये हैं कि, वह कर्मसंन्यास पक्षवालों के लिये ‘मूर्ख-शिरोमणि’ शब्द से अधिक सौम्य शब्द का उपयोग कर ही नहीं सकता है[7]। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 5.56.6
- ↑ 4.1
- ↑ 10.7और 8
- ↑ 7.2और 3
- ↑ “And it is equally a mistake to place inactivity above action for happiness is activity, and the actions of the just and wise are the realization of much that is noble.”(Aristotle’s politics, trans.By jowett.Vol. I. p 212. The italics are onrs).
- ↑ गी.3. 8
- ↑ कर्मयोग और कर्मत्याग (सांख्य या संन्यास) इन्हीं दो मार्गों को सली ने अपने pessimismनामक ग्रंन्थ मे कम से optimism और pessimism नाम दिये हैं, पर हमारी राय में यह नाम ठीक नहीं। pessimism शब्द का अर्थ “उदास, निराशा-वादी या रोती सूरत”होता है। परन्तु संसार को अनित्य समझ कर उसे छोड़देने वाले संन्यासी आनन्दी रहते हैं और वे लोग संसार को आनन्द से ही छोड़ते है; इसलिये हमारी राय में, उनको pessimist कहना ठीक नहीं। इसके बदले कर्मयोग को Energismऔर सांख्य या संन्यास मार्ग को Quietismकहना अधिक प्रशस्त होगा। वैदिक धर्म के अनुसार दोनों मार्गों में ब्रह्मज्ञान एक ही सा है, इसलिये दोनों आनन्द और शान्ति भी एक ही सी है। हम ऐसा भेद नहीं करते कि एक मार्ग आनन्दमय है और दूसरा दु:खमय है अथवा एक आशावादी और दूसरा निराशावादी है
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