गीता रहस्य -तिलक पृ. 294

गीता रहस्य अथवा कर्मयोग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक

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ग्यारहवाँ प्रकरण

भगवान का तो उसे यही निश्‍चित उपदेश था कि– युद्ध ही कर– युद्धयस्‍व![1]; और इस खरे तथा स्‍पष्‍ट उपदेश के समर्थन में ‘लड़ाई करो तो अच्‍छा, न करो तो अच्‍छा’ ऐसे सन्दिग्‍ध उत्‍तर की अपेक्षा और दूसरे कुछ सबल कारणों का बतलाना आवश्‍यक था। और तो क्‍या, गीताशास्‍त्र की प्रवृति यही बतलाने के लिये हुई कि, किसी कर्म के भयंकर परिणाम दृष्टि के सामने दिखने रहने पर भी बुद्धिमान पुरुष उसे ही क्‍यों करे। गीता में यही तो विशेषता है। यदि यह सत्‍य है, कि कर्म से जन्‍तु बंधता और ज्ञान से मुक्‍त होता है, तो ज्ञानी पुरुष को कर्म ही क्‍यों करना चाहियेॽ कर्म-क्षय का अर्थ कर्मों का छोड़ना नहीं है; केवल फलाशा छोड़ देने से ही कर्म का क्षय हो जाता है, सब कर्मों को छोड़ देना शक्‍य नहीं है; इत्‍यादि सिद्धान्‍त यद्यपि सत्‍य हों तथापि इससे भली-भाँति यह सिद्ध नहीं होता, कि जितने कर्म छूट सके उतनों को ही छोड़ क्‍यों न दें। और, न्‍याय से देखने पर भी, वही अर्थ निष्‍पक्ष होता है; क्‍योंकि गीता ही में कहा है कि चारों और पानी ही पानी हो जाने पर जिस प्रकार फिर उसके लिये कोई कुएं की खोज नहीं करता, उसी प्रकार कर्मों से सिद्ध होने वाली ज्ञानप्राप्‍ति हो चुकने पर ज्ञानी पुरुष को कर्म की कुछ भी उपेक्षा नहीं रहती[2]

इसीलिये तीसरे अध्‍याय के प्रारम्‍भ में अर्जुन ने श्रीकृष्‍ण से प्रथम यही पूछा है, कि आपकी राय से यदि कर्म की उपेक्षा निष्‍काम अथवा साम्‍यबुद्धि श्रेष्‍ठ हो, तो स्थितप्रज्ञ के समान मैं भी अपनी बुद्धि को शुद्ध किये लेता हूं– बस, मेरा मतलब पूरा हो गया; अब फिर भी लड़ाई के इस घोर कर्म में मुझे क्‍यों फंसाते होॽ[3] इसका उत्‍तर देते हुए भगवान ने ‘कर्म किसी के भी छूटनहीं सकते’ इत्‍यादि कारण बतलाकर, चौथे अध्‍याय में कर्म समर्थन किया है। परन्‍तु सांख्‍य (संन्‍यास) और कर्मयोग दोनों ही मार्ग यदि शास्‍त्रों में बतलाये गये हैं, तो यही कहना पड़ेगा कि ज्ञान की प्राप्ति हो जाने पर इनमें से जिसे जो मार्ग अच्‍छा लगे, उसे वही स्‍वीकार कर ले। ऐसी दशा में, पांचवे अध्‍याय के आरंभ में, अर्जुन ने फिर प्रार्थना की, कि दोनों मार्ग इकटठे मिलाकर मुझे न बतलाइये; निश्‍चयपूर्वक मझे एक ही बात बतलाइये कि इन दोनों में से अधिक श्रेष्‍ठ कौन है[4]। यदि ज्ञानोतर कर्म करना और न करना एक ही सा है, तो फिर मैं अपनी मर्जी के अनुसार जी चाहेगा तो कर्म करूंगा, नहीं तो न करूंगा। यदि कर्म करना ही उत्‍तम पक्ष हो, तो मुझे उसका कारण समझाइये; तभी मैं आपके कथनानुसार आचरण करूंगा।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. गी.2.18
  2. गी. 2. 46
  3. गी. 3.1
  4. गी. 5.1

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गीता रहस्य अथवा कर्म योग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक
प्रकरण नाम पृष्ठ संख्या
पहला विषय प्रवेश 1
दूसरा कर्मजिज्ञासा 26
तीसरा कर्मयोगशास्त्र 46
चौथा आधिभौतिक सुखवाद 67
पाँचवाँ सुखदु:खविवेक 86
छठा आधिदैवतपक्ष और क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विचार 112
सातवाँ कापिल सांख्यशास्त्र अथवा क्षराक्षर-विचार 136
आठवाँ विश्व की रचना और संहार 155
नवाँ अध्यात्म 178
दसवाँ कर्मविपाक और आत्मस्वातंत्र्य 255
ग्यारहवाँ संन्यास और कर्मयोग 293
बारहवाँ सिद्धावस्था और व्यवहार 358
तेरहवाँ भक्तिमार्ग 397
चौदहवाँ गीताध्यायसंगति 436
पन्द्रहवाँ उपसंहार 468
परिशिष्ट गीता की बहिरंगपरीक्षा 509
- अंतिम पृष्ठ 854

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