गीता रहस्य अथवा कर्मयोग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक
दसवाँ प्रकरण
जिसके मन में सर्वभूतान्तर्गत ब्रह्मात्मैक्यरूपी साम्य प्रतिबिम्बित हो गया है, वह (देवयान मार्ग की अपेक्षा न रख) यहीं का यहीं जन्म-मरण को जीत लेता है अथवा “भूतपृथग्मावमेकस्थमनुश्यति”–जिसकी ज्ञानदृष्टि में समस्त प्राणियों की भिन्नता का नाश हो चुका और जिसे वे सब एकस्थ अर्थात परमेश्रवर स्वरूप दिखने लगते हैं, वह “ब्रह्म सम्पधते”–ब्रह्म में मिल जाता है[1]। गीता का जो वचन ऊपर दिया गया है कि “देवयन और पितृयाण मार्गों को तत्वत: जानने वाला“ पद का अर्थ ”परमावधि के ब्रह्मस्वरूप को पहचानने वाला” ही विवक्षित है[2]। यही पूर्णा ब्रह्मभूत या परमावधि की ब्राह्मी स्थिति है; और श्रीमच्छंकराचार्य ने अपने शाररीक भाष्य[3] में प्रतिपादन किया है, कि यही अध्यात्मज्ञान की अत्यन्त पूर्णावस्था या पराकाष्ठा है। यदि कहा जाये कि ऐसी स्थिति प्राप्त होने के लिये मनुष्य को एक प्रकार से परमेश्वर ही हो जाना पड़ता है, तो कोई अतिशयोक्ति न होगी। फिर कहने की आवश्यकता नहीं कि इस रीति से जो पुरुष ब्रह्मभूत हो जाते हैं, वे कर्म-पूष्टि के सब विवि-निषेधों की अवस्था से भी परे रहते हैं; क्योंकि उनका ब्रह्मज्ञान सदैव जागृत रहता है, इसलिये जो कुछ वे किया करते हैं वह हमेशा शुद्ध और निष्काम बुद्धि से ही प्रेरित हो कर पाप-पुण्य से अलिप्त रहता है। इस स्थिति की प्राप्ति हो जाने पर ब्रह्म-प्राप्ति के लिये किसी अन्य स्थान में जाने की अथवा देह-पात होने की अर्थात मरने की भी कोई आवश्यकता नहीं रहती, इसलिये ऐसे स्थितप्रद ब्रह्मनिष्ठ पुरुष को “जीवनमुक्त” कहते हैं[4]। यद्यपि बौद्ध-धर्म के लोग ब्रह्म या आत्मा को नहीं मानते, तथापि उन्हें यह बात पूर्णतया मान्य है कि मनुष्य का परम साध्य जीवनमुक्त की यह निष्काम अवस्था ही है; और इसी तत्व का संग्रह उन्होंने कुछ शब्द-भेद से अपने धर्म में किया है (परिशिष्ट प्रकरण देखो)। कुछ लोगों का कथन है कि पराकाष्ठा के निष्कामत्व की इस अवस्था में और सांसारिक कर्मों में स्वभाविक परस्पर-विरोध है, इसलिये जिसे यह अवस्था प्राप्त होती है उसके सब कर्म आप ही आप छूट जाते हैं और वह संन्यासी हो जाता है। परन्तु गीता को यह मत मान्य नहीं है; उसका यही सिद्धान्त है कि स्वंय परमेश्वर जिस प्रकार कर्म करता है उसी प्रकार जीवनमुक्त के लिये भी निष्काम बुद्धि से लोक-संग्रह के निमित मृत्यु पर्यन्त सब व्यवहारों को करते रहना ही अधिक श्रेयस्कर है, क्योंकि निष्कामत्व और कर्म में कोई विरोध नहीं है। यह बात अगले प्रकरण के निरूपण से स्पष्ट हो जायगी। गीता का यह तत्व योगवासिष्ठ[5] में भी स्वीकृत किया गया है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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