गीता रहस्य -तिलक पृ. 291

गीता रहस्य अथवा कर्मयोग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक

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दसवाँ प्रकरण

अतएव इस अपूर्णता को दूर करके मोक्ष की प्राप्‍ति के लिये ऐसे लोगों को देवयान मार्ग से ही जाना पड़ता है[1]। क्‍योंकि, अध्‍यात्‍मशास्‍त्र का यह अटल सिद्धांत है कि मरण समय में जिसकी जैसी भावना या क्रतु हो उसे वैसी ही ‘गति’ मिलती है[2]। परन्‍तु सगुण उपासना या अन्‍य किसी कारण से जिसके अपने मन में अपने आत्‍मा और ब्रह्म के बीच कुछ भी परदा या द्वैतभाव[3] शेष नहीं रह जाता, वह सदैव ब्रह्मरुप ही है; अतएव प्रगट है, कि ऐसे पुरुष को ब्रह्म-प्राप्ति के‍ लिये किसी दूसरे स्‍थान में जाने की कोई आवश्‍यकता नहीं। इसीलिये बृहदारणयक में याज्ञवल्‍क्‍य ने जनक से कहा है कि जो पुरुष शुद्ध ब्रह्मज्ञान से पूर्ण निष्‍काम हो गया हो–“न तस्‍य प्राणा उत्‍क्रामन्ति ब्रह्मैव सन्‌ ब्रह्माप्‍येति”–उसके प्राण दूसरे किसी स्‍थान में नहीं जाते; किन्‍तु वह नित्‍य ब्रह्मभूत है और ब्रह्म में ही लय पाता है[4]; और बृहदारण्‍यक तथा कठ, दोनों उपनिषदों में कहा गया है कि ऐसा पुरुष “अत्र ब्रह्म समश्‍नुते”[5]–यहीं का यहीं ब्रह्म का अनुभव करता है। इन्‍हीं श्रुतियों के आधार पर शिवगीता में भी कहा गया है, कि मोक्ष के लिये स्‍थानान्‍तर करने की कोई आवश्‍यकता नहीं होती। ब्रह्म कोई ऐसी वस्‍तु नहीं है कि जो अमुक स्‍थान में हो और अमुक स्‍थान में न हो[6]। तो फिर पूर्ण ज्ञानी पुरुष को पूर्ण ब्रह्मप्राप्ति के लिये उत्तरायण, सूर्यलोक आदि मार्ग से जाने की आवश्‍यकता ही क्‍यों होनी चाहिये।

“ब्रह्म वेद ब्रह्मैव भ‍वति” [7]–जिसने ब्रह्मस्‍वरूप को पहचान लिया, वह तो स्‍वयं यहीं का यहीं इस लोक में ही ब्रह्म हो गया। किसी एक का दूसरे के पास जाना तभी हो सकता है कि जब ‘एक’ और ‘दूसरा’ ऐसा स्‍थलकृत या कालकृत भेद शेष हो; और यह भेद तो अन्तिम स्थिति में अर्थात अद्वैत तथा श्रेष्‍ठ ब्रह्मानुभव में रह ही नहीं सकता। इसलिये जिसके मन की ऐसी नित्‍य स्थिति हो चुकी है कि “यस्‍य सर्वमात्मैवाऽभूत”[8], या “सर्व स्‍त्रल्विदं ब्रह्म”[9],- मैं ही ब्रह्म हूं–अथवा “अहं ब्रह्माऽस्मि”[10], उसे ब्रह्मप्राप्ति के लिये और किस जगह जाना पड़ेगा। वह तो नित्‍य ब्रह्मभूत ही रहता है। पिछले प्रकरण के अन्‍त में जैसा हमने कहा है वैसा ही गीता में परम ज्ञानी पुरुषों का वर्णन इस प्रकार किया गया है कि “अभितौ ब्रह्मनिर्वाणं वर्तते विदितात्‍मनां”[11]–जिसने द्वैत भाव को छोड़कर आत्‍मस्‍वरूप को जान लिया है उसे यदि प्रारब्‍ध-कर्म क्षय के लिये देहपात होने की राह देखनी पड़े, तो भी उसे मोक्ष-प्राप्ति कि लिये कहीं भी नहीं जाना पड़ता, क्‍योंकि ब्रह्मनिर्वाणारूप मोक्ष तो उसके सामने हाथ जोडे़ खड़ा रहता है; अथवा “इहैव तैर्जित: सर्गो येषां साम्‍ये स्थितं मन:”[12]

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. वेसू. 4.315
  2. छां. 3.14.1
  3. तै. 2.7
  4. बृ. 4.4.6
  5. कठ. 6.14
  6. छां 7.25; मुं. 2. 2.11
  7. मुं. 3.2.9
  8. बृ. 2.4.14
  9. छां. 3.14.1
  10. ब. 1.4.10
  11. गी.5. 26
  12. गी. 5.19

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प्रकरण नाम पृष्ठ संख्या
पहला विषय प्रवेश 1
दूसरा कर्मजिज्ञासा 26
तीसरा कर्मयोगशास्त्र 46
चौथा आधिभौतिक सुखवाद 67
पाँचवाँ सुखदु:खविवेक 86
छठा आधिदैवतपक्ष और क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विचार 112
सातवाँ कापिल सांख्यशास्त्र अथवा क्षराक्षर-विचार 136
आठवाँ विश्व की रचना और संहार 155
नवाँ अध्यात्म 178
दसवाँ कर्मविपाक और आत्मस्वातंत्र्य 255
ग्यारहवाँ संन्यास और कर्मयोग 293
बारहवाँ सिद्धावस्था और व्यवहार 358
तेरहवाँ भक्तिमार्ग 397
चौदहवाँ गीताध्यायसंगति 436
पन्द्रहवाँ उपसंहार 468
परिशिष्ट गीता की बहिरंगपरीक्षा 509
- अंतिम पृष्ठ 854

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