गीता रहस्य -तिलक पृ. 283

गीता रहस्य अथवा कर्मयोग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक

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दसवाँ प्रकरण

आज कल हमें इन विचारों का कुछ महत्‍व मालूम नहीं होता क्‍योंकि यज्ञ-याग रूपी श्रौत-धर्म अब प्रचलित नहीं है। परन्‍तु गीताकाल की स्थिति भिन्‍न थी जिसके कारण भगवद्गीता[1] में इस यज्ञचक्र का महत्‍व ऊपर कहे अनुसार बतलाया गया है। त‍थापि गीता से यह स्‍पष्‍ट मालूम होता है कि उस समय भी उपनिषदों में प्रतिपादित ज्ञान के कारण मोक्ष-सृष्टि से इन कर्मों का गौणाता आ चुकी थी[2]। यही गौणाता अहिंसा धर्म का प्रचार होने पर आगे अधिकाधिक बढ़ती गई। भागवतधर्म में स्‍पष्‍टतया प्रतिपादन किया गया है कि यज्ञ-याग वेदविहित है तो भी उनके लिये पशुवध नही करना चाहिये, धान्‍य से ही यज्ञ करना चाहिये[3]। इस कारण (तथा कुछ अंशों में आगे जैनियों के भी ऐसे ही प्रयत्‍न करने के कारण) श्रौत यज्ञमार्ग की आज कल यह दशा हो गई है, कि काशी सरीखे बड़े बड़े धर्म-क्षेत्रों में भी श्रौताग्निहोत्र पालन करने वाले अग्निहोत्री बहुत ही थोड़े देख पड़ते हैं, और ज्‍योतिष्‍टोम आदि पशु-यज्ञों का होना तो दस बीस वर्षों में कभी कभी सुन पड़ता है। तथापि श्रौतधर्म ही सब वैदिक धर्मों का मूल है जिसके कारण उसके विषय में इस समय भी कुछ आदर‍बुद्धि पाई जाती है और जैमिनि के सूत्र अर्थ-निर्णायकशास्‍त्र के नाते प्रमाण मान जाते हैं।

यद्यपि श्रौत यज्ञ-याग आदि धर्म इस प्रकार शिथिल हो गया, तो भी मन्‍वादि स्‍मृतियों में वर्णित दूसरे यज्ञ–जिन्‍हें पच्‍चमहायज्ञ कहते हैं–अब तक प्रचलित है और इनके सम्‍बन्‍ध में भी श्रौतयज्ञ-यागचक्र आदि के ही उक्‍त न्‍याय का उपयोग होता है। उदाहरणार्थ, मनु आदि स्‍मृतिकारों ने पांच अहिंसात्‍मक तथा नित्‍य गृहयज्ञ बतलाये है; जैसे वेदाध्‍ययन ब्रह्मयज्ञ है, तर्पणा पितृयज्ञ है, होम देवयज्ञ, बलि भूतयज्ञ है और अतिथि-संतर्पणा मनुष्‍ययज्ञ है; तथा गार्हस्‍थ्‍य-धर्म के विषय में यह भी कहा है कि इन पांच यज्ञों के द्वारा क्रमानुसार ऋषियों, पितरों, देवताओं, प्राणियों तथा मनुष्‍यों को पहले तृप्‍त करके फिर किसी गृहस्‍थ को स्‍वयं भोजन करना चाहिये[4]। इन यज्ञों के कर लेने पर जो अन्‍न बच जाता है उसको “अमृत’’कहते हैं; और पहले सब मनुष्‍यों के भोजन कर लेने पर जो अन्‍न बचे उसे ‘विघस’ कहते है[5]! यह ‘अमृत’ और ‘विघस’ अन्‍न ही गृहस्‍थ के लिये विहित एवं श्रेयस्‍कर है। ऐसा न करके कोई सिर्फ अपने पेट के लिये ही भोजन पका कर खा जावे, तो वह अघ अर्थात पाप का भक्षण करता है और वह क्या मनुस्‍मृति, क्‍या ऋग्‍वेद और गीता, सभी ग्रंन्‍थो में ‘अघाशी’ कहा गया है [6]। इन स्‍मार्त पंच महायज्ञों के सिवा दान, सत्‍य, दया, अहिंसा, आदि सर्वभूत-हितप्रद अन्‍य धर्म भी उपनिषदों तथा स्‍मृतिग्रन्‍थों में गृहस्‍थ के लिये विहित माने गये हैं[7] और उन्‍हीं में स्‍पष्‍ट खुलासा किया गया है कि कुटुम्‍ब की वृद्धि करके वंश को स्थिर रखो–“प्रजातंतुं मा व्‍यवच्‍छेस्‍सी:”।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 3.16-25
  2. गी. 2.41-46
  3. देखो मभा. शां. 336.10 और 337
  4. मनु. 3. 68-123
  5. म. 3. 285
  6. ऋ.10.117. 6; मनु. 3.118; गी.3.13
  7. तै. 1.11

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गीता रहस्य अथवा कर्म योग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक
प्रकरण नाम पृष्ठ संख्या
पहला विषय प्रवेश 1
दूसरा कर्मजिज्ञासा 26
तीसरा कर्मयोगशास्त्र 46
चौथा आधिभौतिक सुखवाद 67
पाँचवाँ सुखदु:खविवेक 86
छठा आधिदैवतपक्ष और क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विचार 112
सातवाँ कापिल सांख्यशास्त्र अथवा क्षराक्षर-विचार 136
आठवाँ विश्व की रचना और संहार 155
नवाँ अध्यात्म 178
दसवाँ कर्मविपाक और आत्मस्वातंत्र्य 255
ग्यारहवाँ संन्यास और कर्मयोग 293
बारहवाँ सिद्धावस्था और व्यवहार 358
तेरहवाँ भक्तिमार्ग 397
चौदहवाँ गीताध्यायसंगति 436
पन्द्रहवाँ उपसंहार 468
परिशिष्ट गीता की बहिरंगपरीक्षा 509
- अंतिम पृष्ठ 854

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