गीता रहस्य -तिलक पृ. 281

गीता रहस्य अथवा कर्मयोग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक

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दसवाँ प्रकरण

‘अनन्‍य भाव’ का यही अर्थ है कि परमेश्‍वर में मनुष्‍य की चित्तवृति पूर्ण रीति से लीन हो जावे। स्‍मरण रहे कि मुंह से तो ‘राम राम’ बड़बड़ाते रहें और चित्तवृति दूसरी ही ओर रहे, तो इसे अनन्‍य भाव नहीं कहेंगे। सारांश, परमेश्‍वर-ज्ञान की महिमा ही ऐसी है कि ज्‍योंही ज्ञान की प्राप्ति हुई, त्‍योंही सब अनारब्‍ध संचित का एकदम क्षय हो जाता है। यह अवस्‍था कभी भी प्राप्‍त हो, सदैव इष्‍ट ही है। परन्‍तु इसके साथ एक आवश्‍यक बात यह है कि मृत्‍यु के समय यह स्थिर बनी रहे, और यदि पहले प्राप्‍त न हुई हो तो कम से कम मृत्‍यु के समय अवश्‍य प्राप्‍त हो जाय। ऐसा न होने से, हमारे शास्‍त्रकारों के कथनानुसार, कुछ न कुछ वासना अवश्‍य ही बाकी रह जायेगी जिससे पुन: जन्‍म लेना पड़ेगा और मोक्ष भी नहीं मिलेगा। इसका विचार हो चुका कि कर्म-बन्‍धन क्‍या है, कर्म-क्षय किसे कहते हैं, वह कैसे और कब होता है। अब प्रसंगानुसार इस बात का भी कुछ विचार किया जायगा कि जिनके कर्म-फल नष्‍ट हो गये हैं उनको, और जिनके कर्म-बन्‍धन नहीं छूटे हैं उनको मृत्‍यु के अनन्‍तर वैदिक धर्म के अनुसार कौन सी गति मिलती है। इसके संबंध में उपनिषदों मे बहुत चर्चा कि गयी है[1] जिनकी एकवाक्‍यता वेदान्‍तसूत्र के चौथे अध्‍याय के तीसरे पाद में दिखलाई गई है।

परन्‍तु इन सब की चर्चाओं को यहाँ बतलाने की कोई आवश्‍यकता नहीं है; हमें केवल उन्‍हीं दो मार्गों का विचार करना है जो भगवद्गीता[2] में कहे गये हैं। वैदिक धर्म के ज्ञानकाण्‍ड और कर्मकाण्‍ड के, दो प्रसिद्ध भेद हैं। कर्मकाण्‍ड का मूल उद्देश यह है कि सूर्य, अग्‍नि, इन्‍द्र, वरुण, रुद्र इत्‍यादि वैदिक देवताओं का यज्ञ द्वारा पूजन किया जावे, उनके प्रसाद से इसे लोक में पुत्र पौत्र- आदि सन्‍तति तथा गौ, अश्‍व, धन, धान्‍य आदि संपत्ति प्राप्‍त कर ली जावे और अन्‍त में मरने पर सद्‌गति प्राप्‍त होवे। वर्तमान काल में यह यज्ञ-याग आदि श्रौतधर्म प्राय: लुप्‍त हो गया है, इससे उक्‍त उद्देश को सिद्ध करने के लिये लोग देव-भक्ति तथा दान-धर्म आदि शास्‍त्रोक्‍त पुण्‍य–कर्म किया करते हैं। ऋग्‍वेद से स्‍पष्‍टतया मालूम होता है कि प्राचीन काल में लोग, न केवल स्‍वा‍र्थ कि लिये बल्‍कि सब समाज के कल्‍याण के लिये भी, यज्ञ द्वारा ही देवताओं की अराधना किया करते थे। इस काम के लिये जिन इन्‍द्र आदि देवताओं की अराधना किया करते थे। इस काम के लिये जिन इन्‍द्र आदि देवताओं की अनुकूलता का सम्‍पादन करना आवश्‍यक है, उनकी स्‍तुती से ही ऋग्‍वेद के सूक्‍त भरे पड़े हैं।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. छां. 4.15; 5.10; बृ. 6.2.2-16; कौ. 1.2-3
  2. 8. 23-27

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गीता रहस्य अथवा कर्म योग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक
प्रकरण नाम पृष्ठ संख्या
पहला विषय प्रवेश 1
दूसरा कर्मजिज्ञासा 26
तीसरा कर्मयोगशास्त्र 46
चौथा आधिभौतिक सुखवाद 67
पाँचवाँ सुखदु:खविवेक 86
छठा आधिदैवतपक्ष और क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विचार 112
सातवाँ कापिल सांख्यशास्त्र अथवा क्षराक्षर-विचार 136
आठवाँ विश्व की रचना और संहार 155
नवाँ अध्यात्म 178
दसवाँ कर्मविपाक और आत्मस्वातंत्र्य 255
ग्यारहवाँ संन्यास और कर्मयोग 293
बारहवाँ सिद्धावस्था और व्यवहार 358
तेरहवाँ भक्तिमार्ग 397
चौदहवाँ गीताध्यायसंगति 436
पन्द्रहवाँ उपसंहार 468
परिशिष्ट गीता की बहिरंगपरीक्षा 509
- अंतिम पृष्ठ 854

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