गीता रहस्य अथवा कर्मयोग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक
दसवाँ प्रकरण
ज्ञान प्राप्ति की प्रेरणा करने के लिये जीवात्मा स्वतंत्र तो अवश्य है; परन्तु वह तात्विक दृष्टि से मूल में निर्गुण और केवल है, अथवा सातवें प्रकरण में बतलाये अनुसार नेत्रयुक्त परन्तु लंगड़ा है[1], इसलिये उक्त प्रेरणा के अनुसार कर्म करने के लिये जिन साधनों की आवश्यकता होती है (जैसे कुम्हार को पहिये की आवश्यकता होती है) वे इस आत्मा के पास स्वंय अपने नहीं होते–जो साधन उपलब्ध हैं, जैसे देह और बुद्धि आदि इन्द्रियां, वे सब मायात्मक प्रकृति के विकार हैं। अतएव जीवात्मा को अपनी मुक्ति के लिये भी, प्रारब्ध-कर्मानुसार प्राप्त देहेन्दिय आदि सामग्री (साधन या उपाधी) के द्वारा ही सब काम करना पड़ता है। इन साधनों में बुद्धि मुख्य है इसलिये कुछ काम करने के लिये जीवात्मा पहले बुद्धि को ही प्ररेणा करता है। परन्तु पूर्वकर्मानुसार और प्रकृति के स्वाभावानुसार यह कोई नियम नहीं कि यह बुद्धि हमेशा शुद्ध तथा सात्त्विक ही हो। इसलिये पहले त्रिगुणात्मक प्रकृति के प्रवंच से मुक्त हो कर इस बुद्धि को अन्तमुर्ख, शुद्ध, सात्त्विक या आत्मनिष्ठ होना चाहिये, अर्थात यह बुद्धि ऐसी होनी चाहिये कि जीवात्मा की प्रेरणा को माने, उसकी आज्ञा का पालन करे और उन्हीं कर्मों को करने का निश्चय करे कि जिनसे आत्मा का कल्याण हो। ऐसा होने के लिये दीर्घकाल तक वैराग्य का अभ्यास करना पड़ता है। इतना होने पर भी भूख-प्यास आदि देहधर्म और संचित कर्मों के वे फल, जिनका भोगना आरंभ हो गया है, मृत्यु-समय तक छूटते ही नहीं। तात्पर्य यह है कि यद्यपि उपाधिबद्ध जीवात्मा देहेन्द्रियों के मोक्षानुकूल कर्म करने की प्ररेणा करने के लिये स्वतंत्र है, तथापि प्रकृति ही के द्वारा उसे सब काम कराने पड़ते हैं, इसलिये उतने भर के लिये (कुम्हार आदि कारीगरों के समान) वह परावलम्बी हो जाता है और उसे देहेन्द्रिय आदि हाथियारों के पहले शुद्ध करके अपने अधिकार में कर लेना पड़ता है[2]। यह काम एकदम नहीं हो सकता, इसे धीर धीरे करना चाहिये; नहीं तो चमकने और भड़कने वाले घोड़े के समान इन्द्रियां बलवा करने लगेंगी और मनुष्य को धर दबावेंगी। इसीलिये भगवान ने कहा है कि इन्द्रिय निग्रह करने लिये बुद्धि को धृति या धैर्य की सहायता मिलनी चाहिये[3]; और आगे अठारहवे अध्याय[4] में बुद्धि की भाँति धृति के भी–सात्त्विक, राजस और तामस–तीन नैसर्गिक भेद बतलाये गये हैं। इनमें से तामस और राजस को छोड़ कर बुद्धि को सात्त्विक बनाने के लिये इन्द्रिय निग्रह करन पड़ता है; और इसी से छठवें अध्याय में इसका भी संक्षिप्त वर्णन किया है कि ऐसे इन्द्रिय निग्रहाभ्यास-रूप योग के लिये उचित स्थल, आसन और आहार कौन कौन से हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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