गीता रहस्य -तिलक पृ. 272

गीता रहस्य अथवा कर्मयोग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक

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दसवाँ प्रकरण

तथापि ‘’ न ऋतै श्रान्‍तस्‍य सख्‍याय देवा: ‘’[1]– जो मनुष्‍य थकने तक प्रयत्‍न नहीं करता उसे ईश्‍वर सहायता नहीं देता ऋगवेद के इस तत्‍वानुसार यह कहा जाता है कि जीवात्‍मा को यह सामर्थ्‍य प्राप्‍त करा देने के लिये पहले स्‍वयं ही प्रयत्‍न करना चाहिये, अर्थात आत्‍म-प्रयत्‍न का और पर्याय से आत्‍म-स्‍वातंत्रय का तत्‍व फिर भी स्थिर बना ही रहता है[2]। अधिक क्‍या कहें, बौद्धधर्मी लोग आत्‍मा का या परब्रह्म का अस्तित्‍व नहीं मानते; और यद्यपि उनको ब्रह्मज्ञान तथा आत्‍मज्ञान मान्‍य नही है, तथापि उनके धर्मग्रंथों में यही उपदेश किया गया कि “अत्तना ( आत्‍मना ) चोदयऽतानं”– अपने आप को स्‍वंय अपने ही प्रयत्‍न से ठीक राह पर लाना चाहिये। इस उपदेश का समर्थन करने के लिये कहा गया है कि:-

अत्ता (आत्‍मा) हि अत्तनो नाथो अत्ता हि अत्तनो गति।
तस्‍मा सञ्ञमयऽताणं अस्‍सं ( अश्‍वं ) भद्दं व वाणिजो।।

“हम ही खुद अपने स्‍वामी या मालिक हैं और अपने आत्‍मा के सिवा हमें तारने. वाला दूसरा कोई नहीं है; इसलिये जिस प्रकार कोई व्‍यापारी अपने उत्तम घोड़े का संयमन करता है, उसी प्रकार हमें अपना संयमन आप ही भली-भाँति करना चाहिये”[3]; और गीता की भाँति आत्‍म-स्‍वातंत्रय के अस्तित्‍व तथा उसकी आवश्‍यकता का भी वर्णन किया गया है [4]। आधिभौतिक फ्रेंच पंडित कोंट की भी गणना इसी वर्ग में करनी चाहिये; क्‍योंकि यद्यपि वह किसी भी अध्‍यात्‍मवाद को नहीं मानता, तथापि वह बिना किसी उपपत्ति[5] के ही केवल प्रत्‍यक्षसिद्ध कह कर इस बात को अवश्‍य मानता है, कि प्रयत्‍न से मनुष्‍य अपने आचरण और परिस्थिति को सुधार सकता है।

यद्यपि यह सिद्ध हो चुका कि कर्मपाश से मुक्‍त हो कर सर्वभूतान्‍तर्गत एक आत्‍मा का पहचान लेने की जो आध्‍यात्मिक पूर्णावस्‍था है उसे प्राप्‍त करने के लिये ब्रह्मत्‍मैक्‍य-ज्ञान ही एकमात्र उपाय है और इस ज्ञान को प्राप्‍त कर लेना हमारे अधिकार की बात है, तथापि स्‍मरण रहे कि यह स्‍वतंत्र आत्‍मा भी अपनी छाती पर लदे हुए प्रकृति के बोझ को एकदम अर्थात एक ही क्षण में अलग नहीं कर सकता। जैसे कोई कारीगर कितना ही कुशल क्‍यों न हो परन्‍तु वह हथियारों के बिना कुछ काम नही कर सकता और यदि हथियार खराब हो तो उन्‍हें खराब साफ करने में उसका बहुत सा समय नष्‍ठ हो जाता है, वैसा ही जीवात्‍मा का भी हाल है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. ऋ. 4. 33. 11
  2. वेसू. 2. 3. 41, 42; गी.10. 4 और 10
  3. ध्‍म्‍मपद. 380
  4. देखो माहपरिनिब्‍बाणासुत्त 2.33-35
  5. गी.र.36

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गीता रहस्य अथवा कर्म योग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक
प्रकरण नाम पृष्ठ संख्या
पहला विषय प्रवेश 1
दूसरा कर्मजिज्ञासा 26
तीसरा कर्मयोगशास्त्र 46
चौथा आधिभौतिक सुखवाद 67
पाँचवाँ सुखदु:खविवेक 86
छठा आधिदैवतपक्ष और क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विचार 112
सातवाँ कापिल सांख्यशास्त्र अथवा क्षराक्षर-विचार 136
आठवाँ विश्व की रचना और संहार 155
नवाँ अध्यात्म 178
दसवाँ कर्मविपाक और आत्मस्वातंत्र्य 255
ग्यारहवाँ संन्यास और कर्मयोग 293
बारहवाँ सिद्धावस्था और व्यवहार 358
तेरहवाँ भक्तिमार्ग 397
चौदहवाँ गीताध्यायसंगति 436
पन्द्रहवाँ उपसंहार 468
परिशिष्ट गीता की बहिरंगपरीक्षा 509
- अंतिम पृष्ठ 854

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