गीता रहस्य -तिलक पृ. 270

गीता रहस्य अथवा कर्मयोग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक

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दसवाँ प्रकरण

बन्‍धन में पड़ने के कारण आत्‍मा के द्वारा इन्द्रियों को मिलने वाली स्‍वतन्‍त्र प्रेरणा में और ब्रह्मसृष्टि से पदार्थों के संयोग से इन्द्रियों में उत्‍पन्‍न होने वाली प्रेरणा में बहुत भिन्‍नता है। खाना, पीना, चैन करना–ये सब इन्द्रियों की प्रेरणाएं हैं; और आत्‍मा की प्रेरणा मोक्षानुकूल कर्म करने के लिये हुआ करती हैं। पहली प्रेरणा केवल बाह्य अर्थात कर्म-सृष्टि की है; परन्‍तु दूसरी प्रेरणा आत्‍मा की अर्थात ब्रह्म-सृष्टि की है; और ये दोनों प्रेरणायं प्राय: परस्‍पर‍-विरोधी हैं जिससे इनके झगड़े के समय जब मन में सन्‍देह उत्‍पन्‍न होता है तब कर्म-सृष्टि की प्रेरणा को न मान कर[1] यदि मनुष्‍य शुद्धात्‍मा की स्‍वतन्‍त्र प्रेरणा के अनुसार चलने लगे–और इसी को सच्‍चा आत्‍मज्ञान या सच्‍ची आत्‍मनिष्‍ठा कहते हैं–तो उसके सब व्‍यवहार स्‍वभावत: मोक्षानुकूल ही होंगे; और अन्‍त में–

विशुद्धधर्मा शुद्धेन बुद्धेन च स बुद्धिमान् ।
विमलात्‍मा च भवति समेत्‍य विमलात्‍मना ।
स्‍वतन्‍त्रश्च स्‍वतन्‍त्रेण स्‍वतन्‍त्रत्‍वमवाप्‍नुते ।।

‘’वह जीवात्‍मा या शरीर आत्‍मा, जो मूल में स्‍वतन्‍त्र है, ऐसे परमात्‍मा में मिल जाता है जो नित्‍य, शुद्ध, बुद्ध, निर्मल और स्‍वतन्‍त्र है‘’[2]। ऊपर जो कहा गया है कि ज्ञान से मोक्ष मिलता है, उसका यही अर्थ है। इसके विपरीत जब जड़ देहेन्द्रियों के प्राकृत धर्म की अर्थात कर्म-सृष्टि की प्रेरणा की प्रबलता हो जाती है, तब मनुष्‍य की अधोगति होती है शरीर में बंधे हुए जीवात्‍मा में, देहेन्द्रियो से मोक्षानुकूल कर्म कराने की तथा ब्रह्मात्‍मैक्‍य-ज्ञान से मोक्ष प्राप्‍त कर लेने की जो यह स्‍वतन्‍त्र शक्ति है, इसकी ओर ध्‍यान दे कर ही भगवान ने अर्जुन का आत्‍म-स्‍वातन्‍त्रय अर्थात स्‍वावलम्‍बन के तत्‍व का उपदेश किया है कि:-

उद्धरेदात्‍मनाऽऽत्‍मानं नात्‍मानमवसादयेत्।
आत्‍मैव ह्यात्‍मनो बन्‍धुरात्‍मैव रिपुरात्‍मन: ।।

‘’मनुष्‍य को चाहिये कि वह अपना उद्धार स्‍वयं करे; वह अपनी अवनति आप ही न करे; क्‍योंकि प्रत्‍येक मनुष्‍य स्‍वंय अपना बन्‍धु ( हितकारी ) है और स्‍वंय अपना शत्रु ( नाशकर्ता ) है ‘’[3] और इसी हेतु से योगवासिष्ठ[4] में देव का निराकरण करके पौरुष के महत्‍व का विस्‍तारपूर्वक वर्णन किया गया है। जो मनुष्‍य इस तत्त्व को पहचान कर आचरण किया करता है कि सब प्राणियों में एक ही आत्‍मा है, उसी के आचरण का सदाचरण या मोक्षानुकूल आचरण कहते हैं; और जीवात्‍मा का भी यही स्‍वतन्‍त्र धर्म है कि ऐसे आचरण की ओर देहेन्द्रियों का प्रवृत किया करे। इसी धर्म के कारण दुराचारी मनुष्‍य का अन्‍त:करण भी सदाचार ही की तरफदारी किया करता है जिससे उसे अपने किये हुए दुष्‍कर्मों का पश्‍चाताप होता है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. भाग. 11. 10. 4
  2. मभा. शां. 308. 27-30
  3. गी. 6. 5
  4. 2. सर्ग 4-8

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गीता रहस्य अथवा कर्म योग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक
प्रकरण नाम पृष्ठ संख्या
पहला विषय प्रवेश 1
दूसरा कर्मजिज्ञासा 26
तीसरा कर्मयोगशास्त्र 46
चौथा आधिभौतिक सुखवाद 67
पाँचवाँ सुखदु:खविवेक 86
छठा आधिदैवतपक्ष और क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विचार 112
सातवाँ कापिल सांख्यशास्त्र अथवा क्षराक्षर-विचार 136
आठवाँ विश्व की रचना और संहार 155
नवाँ अध्यात्म 178
दसवाँ कर्मविपाक और आत्मस्वातंत्र्य 255
ग्यारहवाँ संन्यास और कर्मयोग 293
बारहवाँ सिद्धावस्था और व्यवहार 358
तेरहवाँ भक्तिमार्ग 397
चौदहवाँ गीताध्यायसंगति 436
पन्द्रहवाँ उपसंहार 468
परिशिष्ट गीता की बहिरंगपरीक्षा 509
- अंतिम पृष्ठ 854

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