गीता रहस्य अथवा कर्मयोग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक
दूसरा प्रकरण
हमारा महाभारत- ग्रंथ ऐसे उदाहरणों की एक बड़ी भारी खानि ही है। ग्रंथ के आरंभ[1] में वर्णन करते हुए स्वयं व्यासजी ने उसको 'सूक्ष्मार्थ न्याययुक्तं' 'अनेक समयान्वितं' आदि विशेषण दिये हैं। उसमें धर्मशास्त्र, अर्थशास्त्र, और मोक्षशास्त्र, सब कुछ आ गया है। इतना ही नहीं किंतु उसकी महिमा इस प्रकार की गयी कि"यदिहास्ति तदन्यत्र यन्नेहास्ति न तत्कचित्'- अर्थात जो कोई इसमें है वही और स्थानों में है, जो इसमें नहीं है इस संसार में अनेक कठिनाइयां उत्पन होती हैं; ऐसे समय बड़े बड़े प्राचीन पुरुषों ने कैसा बर्ताव किया इसका, सुलभ आख्यानों के द्वारा, साधारण जनों को बोध करा देने ही के लिये 'भारत' का महाभारत' हो गया है नही तो सिर्फ भारतीय युद्ध अथवा 'जय' नामक इतिहास का वर्णन करने के लिये अठारह पर्वों की कुछ आवश्यकता न थी। अब यह प्रश्न किया जा सकता है कि श्रीकृष्ण और अर्जुन की बातें छोड़ दीजिये; हमारे तुम्हारे लिये इतने गहरे पानी में पैठने की क्या आवश्यकता है? क्या मनु आदि स्मृतिकारों ने अपने ग्रंथों में इस बात के स्पष्ट नियम नहीं बना दिये हैं कि मनुष्य संसार में किस तरह बर्ताव करें? किसी की हिंसा मत करना, नीति से चलो, सच बोलो, गुरु और बड़ों का सम्मान करो, चोरी और व्यभिचार मत करो इत्यादि सब धर्मों में पाई जाने वाली साधारण आज्ञाओं का यदि पालन किया जाय, तो ऊपर लिखे कर्तव्य-अकर्तव्य के झगड़े मे पड़ने की क्या आवश्यकता है? परंतु इसके विरुद्ध यह भी प्रश्न किया जा सकता है कि जब तक इस संसार के सब लोग उक्त आज्ञाओं के अनुसार बर्ताव करने नहीं लगे हैं, तब तक सज्जनों को क्या करना चाहिये- क्या ये लोग अपने सदाचार के कारण, दुष्ट जनों के फंदे में, अपने को फंसा लें या अपनी रक्षा के लिये "जैसे को तैसा" होकर उन लोगों का प्रतिकार करें इसके सिवा एक बात और है। यदयपि उक्त साधारण नियमों को नित्य और प्रमाण भूतमान लें, तथापि कार्यकर्ताओं को अनेक बार ऐसे मौके आते हैं कि उस समय उक्त साधारण नियमों में से दो या अधिक नियम एकदम लागू होते हैं। उस समय "यह करूं या वह करूं" इस चिंता में पड़ कर मनुष्य पागल सा हो जाता है। अर्जुन पर ऐसा ही मौका आ पड़ा था परन्तु अर्जुन के सिवा और लोगों पर भी, ऐसे कठिन अवसर अक्सर आया करते हैं। इस बात का मार्मिक विवेचन महाभारत में, कई स्थानों में किया गया है। उदाहरणार्थ, मनु ने सब वर्ण के लोगों के लिये नीति धर्म के पाँच नियम बतलाये हैं "अहिंसा सत्यमस्तेयं शोचमिन्द्रियनिग्रहः"[2] अहिंसा, सत्य, अस्तेय, काया, वाचा और मन की शुद्धता, एवं इंन्द्रिय निग्रह। इन नीति धर्म में से एक अहिंसा ही का विचार कीजिये। "अहिंसा परमो धर्मः"[3] यह तत्त्व सिर्फ हमारे वैदिकधर्म ही में नही किंतु अन्य सब धर्मों में भी, प्रधान माना गया है। बौद्ध और ईसाई धर्म-ग्रंथों में जो आज्ञाएँ हैं उनमें अहिंसा को, मनु की आज्ञा के समान, पहला स्थान दिया गया है। सिर्फ किसी की जान लेना ही हिंसा नहीं हैं। उसमें किसी के मन अथवा शरीर को दुःख देने का भी समावेश किया गया है। अर्थात किसी सच्चे तन प्राणी को किसी प्रकार दुःखित न करना ही अहिंसा है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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