गीता रहस्य -तिलक पृ. 267

गीता रहस्य अथवा कर्मयोग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक

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दसवाँ प्रकरण

‘’विनायकं प्रकुर्वाणो रचयामास वानरम् ‘’–मूर्ति तो गणपति की बनानी थी; परन्‍तु ( वह न बन कर ) बन गई बन्‍दर की–ठीक यही दशा होगी। इसलिये अध्‍यात्‍मशास्‍त्र के युक्ति-वाद से भी यही सिद्ध होता है, कि ब्रह्म-स्‍वरूप का ज्ञान ( अर्थात ब्रह्मत्‍मैक्‍य का तथा ब्रह्म की अलिप्‍त्‍ता का ज्ञान ) प्राप्‍त करके उसे मृत्‍यु पर्यन्‍त स्थिर रखना ही कर्म-पाश से मुक्‍त होने का सच्‍चा मार्ग है। गीता में भगवान ने भी यही कहा है कि ‘’कर्मों में मेरी कुछ भी आ‍सक्ति नहीं है; इसलिये मुझे कर्म का बन्‍धन नहीं होता–और जो इस तत्‍व को समझ जाता है वह कर्म पाश से मुक्‍त हो जाता है ‘’[1]। स्‍मरण रहे कि यहाँ ‘ज्ञान’ का अर्थ केवल शाब्दिक ज्ञान या केवल मानसिक क्रिया नहीं है; किन्‍तु हर समय और प्रत्‍येक स्‍थान में उसका अर्थ ‘’पहले मानसिक ज्ञान होने पर और फिर इन्द्रियों पर जय प्राप्‍त कर लेने पर ब्रह्मभिूत होने की अवस्‍था या बाह्यी स्थिति" ही है। यह बात वेदान्‍तसूत्र के शांकरभाष्‍य के आरम्‍भ ही में कही गई है। पिछले प्रकरण के अन्‍त में ज्ञान के सम्‍बन्‍ध में अध्‍यात्‍मशास्‍त्र का यही सिद्धान्‍त बतलाया गया है और महाभारत में जनक ने सुलभा से कहा है कि–‘’ ज्ञानेन कुरुते यतं यत्नेन प्राप्‍यते महत्‘’– ज्ञान ( अर्थात मानसिक क्रिया रूपी ज्ञान ) हो जाने पर मनुष्‍य यज्ञ करता है और यत्‍न के इस मार्ग से ही अन्‍त में उसे महतत्‍व ( परमेश्‍वर ) प्राप्‍त हो जाता है[2]

आध्‍यात्‍मशास्‍त्र इतना ही बतला सकता है कि मोक्ष-प्राप्ति के लिये किस मार्ग की और कहाँ जाना चाहिये– इससे अधिक वह और कुछ नहीं बतला सकता। शास्‍त्र से ये बातें जान कर प्रत्‍येक मनुष्‍य को शास्‍त्रोक्‍त मार्ग से स्‍वंय आप ही चलना चाहिये और उस मार्ग में जो कांटे या बाधांए हो, उन्‍हें निकाल कर अपना रास्‍ता ख़ुद साफ कर लेना चाहिये एवं उसी मार्ग पर चलते हुये स्‍वंय अपने प्रयत्‍न से अन्‍त में ध्‍येय वस्‍तु की प्राप्ति कर लेनी चाहिये। परन्‍तु यह प्रयत्‍न भी पातंजल योग, अध्‍यात्‍मविचार, भक्ति, कर्मफल-त्‍याग इत्‍यादि अनेक प्रकार से किया जा सकता है[3], जिससे मनुष्‍य बहुधा उलझन मे फंस जाता है। इसीलिये गीता में पहले निष्‍काम कर्मयोग का मुख्‍य मार्ग बतलाया गया है और उसकी सिद्धि के लिये छठे अध्‍याय में यम नियम आसन-प्रणायाम-प्रत्‍याहार-धारणा-ध्‍यान-समाधिरूप अंगभूत साधनों का भी वर्णन किया गया है; तथा आगे सातवें अध्‍याय से यह बतलाया है कि‍ कर्मयोग का आचरण करते रहने से ही परमेश्‍वर का ज्ञान अध्‍यात्‍मविचार द्वारा अथवा ( इससे भी सुलभ रीति से ) भक्ति-मार्ग द्वारा हो जाता है[4]

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. गी. 4. 14. तथा 13. 23
  2. शां. 320. 30.
  3. गी. 12. 8-12
  4. गी. 18.56

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प्रकरण नाम पृष्ठ संख्या
पहला विषय प्रवेश 1
दूसरा कर्मजिज्ञासा 26
तीसरा कर्मयोगशास्त्र 46
चौथा आधिभौतिक सुखवाद 67
पाँचवाँ सुखदु:खविवेक 86
छठा आधिदैवतपक्ष और क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विचार 112
सातवाँ कापिल सांख्यशास्त्र अथवा क्षराक्षर-विचार 136
आठवाँ विश्व की रचना और संहार 155
नवाँ अध्यात्म 178
दसवाँ कर्मविपाक और आत्मस्वातंत्र्य 255
ग्यारहवाँ संन्यास और कर्मयोग 293
बारहवाँ सिद्धावस्था और व्यवहार 358
तेरहवाँ भक्तिमार्ग 397
चौदहवाँ गीताध्यायसंगति 436
पन्द्रहवाँ उपसंहार 468
परिशिष्ट गीता की बहिरंगपरीक्षा 509
- अंतिम पृष्ठ 854

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