गीता रहस्य -तिलक पृ. 261

गीता रहस्य अथवा कर्मयोग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक

Prev.png
दसवाँ प्रकरण

शास्‍त्र-दृष्‍टि से यही प्रकट होता है कि संचित के अर्थात समस्‍त भूतपूर्व कर्मो के संग्रह के एक छोटे भेद को ही ‘प्रारब्‍ध’कहते है। ‘प्रारब्‍ध’ कुछ समस्‍त संचित नही है; संचित के जितने भाग के फलों का (कार्यों का) भोगना प्रारम्‍भ हो गया हो उतना ही प्रारब्‍ध है और इसी कारण से इस प्रारब्‍ध का दूसरा नाम प्रारब्‍ध–कर्म है। प्रारब्‍ध और संचित के अतिरिक्‍त कर्म का क्रियमाण नामक एक और तीसरा भेद है। ‘क्रियमाण’ वर्तमान कालवाचक धातु-साधित शब्‍द है और उसका अर्थ है –‘जो कर्म अभी हो रहा है अथवा जो कर्म अभी किया जा रहा है। ‘परन्‍तु वर्तमान समय में जो हम जो कुछ करते हैं वह प्रारब्‍ध-कर्म का ही ( अर्थात संचित कर्मों में से जिन कर्मों का भोगना शुरू हो गया है, उनका ही ) परिणाम है; अतएव ‘क्रियमाण’ को कर्म का तीसरा भेद मानने के लिये हमें कोई कारण देख नही पड़ता। हां, यह भेद अवश्‍य किया जा सकता है कि प्रारब्‍ध कारण है और क्रियमाण उसका फल अर्थात कार्य है; परन्‍तु कर्म-विपाक प्रक्रिया में इस भेद का कुछ उपयोग नही हो सकता। संचित में से जिन कर्मों के फलों का भोगना अभी तक प्रारम्‍भ नहीं हुआ है उनका- अर्थात संचित में से प्रारब्‍ध को घटा देने पर जो कर्म बाकी रह जाएं उनका– बोध कराने के लिये किसी दूसरे शब्‍द की आवश्‍यकता है।

इसलिये वेदान्‍तसूत्र[1] में प्रारम्‍भ ही को प्रारम्‍भ-कार्य, और जो प्रारब्‍ध नही हैं उन्‍हें अनारब्‍ध–कार्य कहा है। हमारे मतानुसार संचित कर्मों के इस रीति से–प्रारब्‍ध कार्य और अनारब्‍ध-कार्य–दो भेद करना ही शास्‍त्र की दृष्टि से अधिक युक्‍तिपूर्ण मालूम होता है। इसलिये ‘क्रियमाण’ को धातु-साधित वर्तमानकालवाचक न समझ कर ‘वर्तमानसामीप्‍ये वर्तमानवद्वा' इस पाणिनी-सूत्र के अनुसार [2] भविष्‍यकालवाचक समझें, तो उसका अर्थ ‘जो आगे शीघ्र ही भोगने को है’ किया जा सकेगा; और तब क्रियमाण का ही अर्थ अनारब्‍ध-कार्य हो जायेगा; एवं ‘प्रारब्‍ध‘ तथा ‘क्रियमाण’ ये दोनों शब्‍द क्रम से वेदान्‍तसूत्र के ‘आरब्‍ध-कार्य ’और ‘अनारब्‍ध-कार्य’ शब्‍दों के समानार्थक हो जायंगे। परन्‍तु क्रियमाण का ऐसा अर्थ आजकल कोई नही करता; उसका अर्थ प्रचलित कर्म ही लिया जाता है। इस पर यह आक्षेप है कि ऐसा अर्थ लेने से प्रारब्‍ध के फल को ही क्रियमाण कहना पड़ता है और जो कर्म अनारब्‍ध–कार्य हैं उनका बोध कराने के लिए संचित, प्रारब्‍ध तथा क्रियमाण इन तीनो शब्‍दों में कोई भी पर्याप्‍त नही होता।

Next.png

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 4.1.15
  2. (पा.3. 3.131

संबंधित लेख

गीता रहस्य अथवा कर्म योग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक
प्रकरण नाम पृष्ठ संख्या
पहला विषय प्रवेश 1
दूसरा कर्मजिज्ञासा 26
तीसरा कर्मयोगशास्त्र 46
चौथा आधिभौतिक सुखवाद 67
पाँचवाँ सुखदु:खविवेक 86
छठा आधिदैवतपक्ष और क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विचार 112
सातवाँ कापिल सांख्यशास्त्र अथवा क्षराक्षर-विचार 136
आठवाँ विश्व की रचना और संहार 155
नवाँ अध्यात्म 178
दसवाँ कर्मविपाक और आत्मस्वातंत्र्य 255
ग्यारहवाँ संन्यास और कर्मयोग 293
बारहवाँ सिद्धावस्था और व्यवहार 358
तेरहवाँ भक्तिमार्ग 397
चौदहवाँ गीताध्यायसंगति 436
पन्द्रहवाँ उपसंहार 468
परिशिष्ट गीता की बहिरंगपरीक्षा 509
- अंतिम पृष्ठ 854

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                                 अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र    अः