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दसवाँ प्रकरण
इस प्रकार यदि किसी कर्म को करने अथवा न करने के लिये मनुष्य को कोई स्वतंत्रता ही नहीं है, तो फिर यह कहना भी व्यर्थ है कि मनुष्य को अपना आचरण अमुक रीति से सुधार लेना चाहिए और अमुक रीति से ब्रह्मात्मैक्यज्ञान प्राप्त करके अपनी बुद्धि को शुद्ध करना चाहिये। तब तो मनुष्य की वही दशा होती है कि जो नदी के प्रवाह में बहती हुई लकड़ी की हो जाती है; अर्थात जिस ओर माया, प्रकृति, सृष्टिक्रम या कर्म का प्रवाह उसे खींचेगा, उसी ओर उसे चुपचाप चले जाना चाहिये। फिर चाहे उसमें अधोगति हो अथवा प्रगति। इस पर कुछ अन्य आधिभौतिक उत्क्रांतिवादियों का कहना है कि प्रकृति का स्वरूप स्थिर नहीं है और नामरूप क्षण-क्षण में बदला करते हैं; इसलिये जिन सृष्टि-नियमों के अनुसार ये परिवर्तन होते हैं, उन्हें जान कर मनुष्य को बाह्य-सृष्टि में ऐसा परिवर्तन कर लेना चाहिये कि जो उसे हितकारक हो; और हम देखते हैं कि मनुष्य इसी न्याय से प्रत्यक्ष व्यवहारों में अग्नि या विद्युच्छ्क्ति का उपयोग अपने फायदे के लिये किया करता है। इसी तरह यह भी अनुभव की बात है कि प्रयत्न से मनुष्य-स्वभाव में थोड़ा बहुत परिवर्तन अवश्य हो जाता है। परंतु प्रस्तुत प्रश्न यह नहीं है कि सृष्टि-रचना में या मनुष्य-स्वभाव में परिवर्तन होते हैं या नहीं और करना चाहिये या नहीं; हमें तो पहले यही निश्चय करना है कि ऐसा परिवर्तन करने की जो बुद्धि या इच्छा मनुष्य में उत्पन्न होती है उसे रोकने या न रोकने की स्वाधीनता उसमें है या नहीं।
और, आधिभौतिक शास्त्र की दृष्टि से इस बुद्धि का होना न होना ही यदि “बुद्धि: कर्मानुसारिणी” के न्याय के अनुसार प्रकृति, कर्म या सृष्टि के नियमों से पहले ही निश्चित हुआ रहता है, तो यही निष्पन्न होता है कि इस आधिभौतिक शास्त्र के अनुसार किसी भी कर्म को करने या न करने के लिये मनुष्य स्वतंत्र नहीं है। इस वाद को “वासना-स्वातंत्र्य” “इच्छा-स्वातंत्र्य” या “प्रवृति-स्वातंत्र्य” कहते हैं। केवल कर्म-विपाक अथवा केवल आधिभौतिक-शास्त्र की दृष्टि से विचार किया जाय तो अंत में यही सिद्धांत करना पड़ता है, कि मनुष्य को किसी भी प्रकार का प्रवृति-स्वातंत्र्य या इच्छा-स्वातंत्र्य नहीं है– वह कर्म के अभेद्य बन्धनों से वैसा ही जकड़ा हुआ है जैसे किसी गाड़ी का पहिया चारों तरफ से लोहे की पट्टी से जकड़ दिया जाता है। परंतु इस सिद्धांत की सत्यता के लिये मनुष्यों के अंत:करण का अनुभव गवाही देने को तैयार नहीं है। प्रत्येक मनुष्य अपने अंत:-करण में यही कहता है कि यद्यपि मुझ में सूर्य का उदय पश्चिम दिशा में करा देने की शक्ति नहीं है, तो भी मुझ में इतनी शक्ति अवश्य है कि मैं अपने हाथ से होने वाले कार्यों की भलाई-बुराई का विचार करके उन्हें अपनी इच्छा के अनुसार करूँ या न करूँ, अथवा जब मेरे सामने पाप और पुराण तथा धर्म और अधर्म के दो मार्ग उपस्थित हों, तब उनमें से किसी एक को स्वीकार कर लेने के लिए मैं स्वतंत्र हूँ।
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