गीता रहस्य अथवा कर्मयोग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक
दसवाँ प्रकरण
“कर्मणा बध्यते जंतु:”– ऐसा जो इस प्रकरण के आरम्भ में ही गीता का वचन दिया हुआ है, उसका अर्थ भी यही है। इस अनादि कर्म-प्रवाह के और भी दूसरे अनेक नाम हैं, जैसे संसार, प्रकृति, माया, दृश्य-सृष्टि, सृष्टि के कायदे या नियम इत्यादि; क्योंकि सृष्टि-शास्त्र के नियम नाम-रूपों में होने वाले परिवर्तनों के ही नियम हैं, और यदि इस दृष्टि से देखें तो सब आधिभौतिक-शास्त्र नाम रूपात्मक माया के प्रपंच ही मालूम होते हैं। इस माया के नियम तथा बन्धन सुदृढ़ एवं सर्वव्यापी हैं। इसीलिये हेकल जैसे आधिभौतिक-शास्त्रज्ञ, जो इस नाम- रूपात्मक माया तथा दृश्य-सृष्टि के मूल में अथवा उससे परे किसी नित्य तत्त्व का होना मानते, उन लोगों ने सिद्धांत किया है कि यह सृष्टि-चक्र मनुष्य को जिधर ढकेलता है, उधर ही उसे जाना पड़ता है। इन पंडितों का कथन है कि प्रत्येक मनुष्य को जो ऐसा मालूम होता रहता है कि नाम-रूपात्मक विनाशी स्वरूप से हमारी मुक्ति होनी चाहिये अथवा अमुक काम करने से हमें अमृतत्त्व मिलेगा- यह सब केवल भ्रम है। आत्मा या परमात्मा कोई स्वतंत्र पदार्थ नहीं है और अमृतत्त्व भी झूठ है; इतना ही नहीं, किंतु इस संसार में कोई भी मनुष्य अपनी इच्छा से कुछ काम करने को स्वतंत्र नहीं है। मनुष्य आज जो कुछ कार्य करता है, वह पूर्वकाल में किये गये स्वयं उसके या उसके पूर्वजों के कर्मों का परिणाम है, इससे उक्त कार्य का करना न करना भी उसकी इच्छा पर कभी अवलम्बित नहीं हो सकता। उदाहरणार्थ, किसी की एक-आध उत्तम वस्तु को देख कर पूर्व कर्मों से अथवा वंश परम्परागत संस्कारों से उसे चुरा लेने की बुद्धि कई लोगों के मन में, इच्छा न रहने पर भी, उत्पन्न हो जाती है और वे उस वस्तु को चुरा लेने के लिये प्रवृत हो जाते है। अर्थात इन आधिभौतिक पंडितों के मत का सांराश यही है, कि गीता में जो यह तत्त्व बतलाया गया है कि “अनिच्छ्न् अपि वार्ष्णेय बलादिव नियोजित:”[1]- इच्छा न रहने पर भी मनुष्य पाप करता है- वही तत्त्व सभी जगह एक समान उपयोगी है, उसके लिये एक भी अपवाद नहीं है और उससे बचने का भी कोई उपाय नहीं है। इस मत के अनुसार यदि देखा जाय तो मानना पड़ेगा के मनुष्य की जो बुद्धि उत्पन्न हुई थी वह परसों के कर्मों का फल था और ऐसा होते होते इस कारण परम्परा का कभी अंत ही नहीं मिलेगा तथा यह मानना पड़ेगा कि मनुष्य अपनी स्वतंत्र बुद्धि से कुछ भी नहीं कर सकता, जो कुछ होता जाता है वह सब पूर्व कर्म अर्थात दैव का ही फल है– क्योंकि प्राक्तन कर्म को ही लोग दैव कहा करते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ गी.3. 36
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