गीता रहस्य अथवा कर्मयोग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक
दसवाँ प्रकरण
इस प्रश्न को हल करने के लिये नाम-रूपों का विवेचन करना आवश्यक होता है, क्योंकि वेदांत की दृष्टि से सब पदार्थों के दो ही वर्ग होते हैं, जैसे आत्मा अथवा परमात्मा, और उसके ऊपर का नाम-रूपों का आवरण; इसलिये नाम-रूपात्मक आवरण के सिवा अब अन्य कुछ भी शेष नहीं रहता। वेदांतशास्त्र का मत है कि नाम-रूप का यह आवरण किसी जगह घना तो किसी जगह विरल होने के कारण दृश्य-सृष्टि के पदार्थों में सचतेन और अचेतन, तथा सचेतन में भी पशु, पक्षी, मनुष्य, देव, गन्धर्व और राक्षस इत्यादि भेद हो जाते हैं। यह नहीं कि आत्मा-रूपी ब्रह्म किसी स्थान में न हो। वह सभी जगह है– वह पत्थर में है और मनुष्य में भी है। परंतु, जिस प्रकार दीपक एक होने पर भी, किसी लोहे के बक्स में, अथवा न्यूनाधिक स्वच्छ काँच की लालटेन में उसके रखने से अंतर पड़ता है; उसी प्रकार आत्मतत्त्व सर्वत्र एक ही होने पर भी उसके ऊपर के कोश, अर्थात नाम-रूपात्मक आवरण के तारतम्य-भेद से अचेतन और सचेतन में जैसे भेद हो जाया करते हैं। और तो क्या, इसका भी कारण वही है कि सचेतन में मनुष्यों और पशुओं को ज्ञान सम्पादन करने का एक समान ही सामर्थ्य क्यों नहीं होता। आत्मा सर्वत्र एक ही है सही; परंतु वह आदि से ही निर्गुण और उदासीन होने के कारण मन, बुद्धि इत्यादि नाम-रूपात्मक साधनों के बिना, स्वयं कुछ भी नहीं कर सकता; और ये साधन मनुष्य-योनि को छोड़ अन्य किसी भी योनि में उसे पूर्णतया प्राप्त नहीं होते, इसलिय मनुष्य-जन्म सब में श्रेष्ठ कहा गया है। इस श्रेष्ठ जन्म में आने पर आत्मा के नाम-रूपात्मक आवरण के स्थूल और सूक्ष्म, दो भेद होते हैं। इनमें से स्थूल आवरण मनुष्य की स्थूल देह ही है कि जो शुक्र-शोणित आदि से बनी है। शुक्र से आगे चल कर स्नायु, अस्थि और मज्जा तथा शोणित अर्थात रक्त से त्वचा, मांस और केश उत्पन्न होते हैं– ऐसा समझकर इन सब को वेदांती ‘अन्नमय कोश’ कहते हैं। इस स्थूल कोश को छोड़कर जब हम यह देखने लगते हैं कि इसके अन्दर क्या है तब क्रमश: वायुरूपी प्राण अर्थात ‘प्राणमय कोश’ मन अर्थात ‘मनोमय कोश’ बुद्धि अर्थात ‘ज्ञानमय कोश’ और अंत में ‘आनन्दमय कोश’ मिलता है। आत्मा उससे भी परे है। इसलिये तैत्तिरीयोपनिषद में अन्नमय कोश से आगे बढ़ते बढ़ते अंत में आनन्दमय कोश बतला कर वरुण ने भृगु को आत्म-स्वरूप की पहचान करा दी है[1]। इन सब कोशों में से स्थूल देह का कोश छोड़कर बाकी रहे हुए प्राणादि कोशों, सूक्ष्म इन्द्रियों और पंचतन्मात्राओं को वेदांती ‘लिंग’ अथवा सूक्ष्म शरीर कहते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ तै. 2.1-5 ; 3. 2-6
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