गीता रहस्य -तिलक पृ. 246


गीता रहस्य अथवा कर्मयोग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक

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नवां प्रकरण

चौथी ऋचा में मूल ब्रह्म को ही ‘असत’ कहा है; परंतु उसका अर्थ “कुछ नहीं” यह नहीं मान सकते, क्योंकि दूसरी ऋचा में ही स्पष्ट कहा है कि “वह है”। न केवल इसी सूक्त में, किंतु अन्यत्र भी व्यावहारिक भाषा को स्वीकार कर ही ऋग्वेद और वाजसनेयी संहिता में गहन विषयों का विचार ऐसे प्रश्नों के द्वारा किया गया है[1]- जैसे, दृश्य सृष्टि को यज्ञ की उपमा दे कर प्रश्न किया है, कि इस यज्ञ के लिये आवश्यक घृत, समिधा इत्यादि सामग्री प्रथम कहाँ से आई?[2], अथवा घर का दृष्टांत ले कर यह प्रश्न किया है, कि मूल एक निर्गुण से, नेत्रों को प्रत्यक्ष दिखाई देने वाली आकाश- पृथ्वी की इस भव्य इमारत को बनाने के लिये लकड़ी ( मूल प्रकृति ) कैसे मिली?- किं स्विद्वनं क उस वृक्ष आस यतो द्यावापृथिवी निष्टतक्षु:। इन प्रश्नों का उत्तर, उपर्युक्त सूक्त की चौथी और पाँचवीं ऋचा में जो कुछ कहा गया है, उससे अधिक दिया जाना सम्भव नहीं है[3]; और वह उत्तर यही है, कि उस अनिर्वाच्य अकेले एक ब्रह्म ही के मन में सृष्टि निर्माण करने का ‘काम’ रूपी तत्त्व किसी तरह उत्पन्न हुआ, और वस्त्र के धागे समान या सूर्य-प्रकाश के समान उसी की शाखाएँ तुरंत नीचे-ऊपर और चहुँ ओर फैल गई तथा सत का सारा फैलाव हो गया अर्थात आकाश- पृथ्वी की यह भव्य इमारत बन गई।

अतएव उपनिषदों में इस सूक्त के अर्थ का ही ऐसा अनुवाद किया गया है, कि “सोऽकामयत। बहु स्यां प्रजायेयेति”।[4]– उस परब्रह्म को ही अनेक होने की इच्छा हुई[5]; और अथर्व वेद में भी ऐसा वर्णन है, कि असत से सत की, इस सारी दृश्य सृष्टि के मूल्भूत दृव्य से ही पहले-पहल 'काम' (अथर्व.9. 2. 19)। परंतु इस सूक्त में विशेषता यह है कि निर्गुण से सगुण की असत्‌ से सत्‌ की, निर्द्वन्द्व से द्वन्द्व की, अथवा असंग से संग की उत्पत्ति का प्रश्न मानवी बुद्धि को अगम्य जान कर, सांख्यों के समान केवल तर्कवश हो मूल प्रकृति ही को या उसके सदृश किसी दूसरे तत्त्व को स्वयंभू और स्वतंत्र नहीं माना है; किंतु इस सूक्त के ऋषि कहते हैं कि “जो बात समझ में नहीं आती उसके लिये साफ साफ कह दो कि यह समझ में नहीं आती; परंतु उसके लिये शुद्ध बुद्धि से और आत्मप्रतीति से निश्चित किये गये अनिर्वाच्य ब्रह्म की योग्यता को दृश्य सृष्टिरूप माया की योग्यता के बराबर मत समझो, और न परब्रह्म के विषय में अपने अद्वैत-भाव ही को छोड़ो।” इसके सिवा यह सोचना चाहिये कि यद्यपि प्रकृति को एक त्रिगुणात्मक स्वतंत्र पदार्थ मान भी लिया जावे; तथापि इस प्रश्न का उत्तर तो दिया ही नहीं जा सकता, कि उसमें सृष्टि को निर्माण करने के लिये प्रथमत: बुद्धि (महान) या अहंकार कैसे उत्पन्न हुआ। और, जबकि यह दोष कभी टल ही नहीं सकता है, तो फिर प्रकृति को स्वतंत्र मान लेने में क्या लाभ है?

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 10.31.7;10.81.4; वाज. सं. 17.20 देखो
  2. ऋ. 10.130.3.
  3. वाज. सं. 33.74 देखो
  4. तै. 2.6; छां. 6.2.3
  5. बृ. 1.4 देखो

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गीता रहस्य अथवा कर्म योग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक
प्रकरण नाम पृष्ठ संख्या
पहला विषय प्रवेश 1
दूसरा कर्मजिज्ञासा 26
तीसरा कर्मयोगशास्त्र 46
चौथा आधिभौतिक सुखवाद 67
पाँचवाँ सुखदु:खविवेक 86
छठा आधिदैवतपक्ष और क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विचार 112
सातवाँ कापिल सांख्यशास्त्र अथवा क्षराक्षर-विचार 136
आठवाँ विश्व की रचना और संहार 155
नवाँ अध्यात्म 178
दसवाँ कर्मविपाक और आत्मस्वातंत्र्य 255
ग्यारहवाँ संन्यास और कर्मयोग 293
बारहवाँ सिद्धावस्था और व्यवहार 358
तेरहवाँ भक्तिमार्ग 397
चौदहवाँ गीताध्यायसंगति 436
पन्द्रहवाँ उपसंहार 468
परिशिष्ट गीता की बहिरंगपरीक्षा 509
- अंतिम पृष्ठ 854

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