गीता रहस्य अथवा कर्मयोग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक
नवां प्रकरण
“नेति नेति”, “एकमेवाद्वितीयम्” या “स्वे महिभ्नि प्रतिष्ठित:”[1]- अपनी ही महिमा से अर्थात अन्य किसी की अपेक्षा न करते हुए अकेला ही रहने वाला- इत्यादि जो परब्रह्म के वर्णन उपनिषदों में पाये जाते हैं, वे भी उपरोक्त अर्थ के ही द्दोतक हैं। सारी सृष्टि के मूलारम्भ में चारों ओर जिस एक अनिर्वाच्य तत्त्व के स्फुरण होने की बात इस सूक्त में कही गई है, वही तत्त्व सृष्टि का प्रलय होने पर भी नि:सन्देह शेष रहेगा। अतएव गीता में इसी परब्रह्म कुछ पर्याय से इस प्रकार वर्णन है, कि “सब पदार्थों का नाश होने पर भी जिसका नाश नहीं होता”[2]; और आगे इसी सूक्त के अनुसार स्पष्ट कहा है, कि “वह सत् भी नहीं है और असत् भी नहीं है” [3]। परंतु प्रश्न यह है कि जब सृष्टि के मूलारम्भ में निर्गुण ब्रह्म के सिवा और कुछ भी न था, तो फिर वेदों में जो ऐसे वर्णन पाये जाते हैं कि “आरम्भ में पानी, अन्धकार, या आभु और तुच्छ की जाड़ी थी” उनकी क्या व्यवस्था होगी? अतएव तीसरी ऋचा में कवि ने कहा है कि इस प्रकार के जितने वर्णन हैं जैसे कि, सृष्टि के आरम्भ में अन्धकार था, या अन्धकार से आच्छादित पानी था, या आभु (ब्रह्म) और उसको आच्छादित करने वाली माया (तुच्छ) ये दोनों पहले से थे इत्यादि, वे सब उस समय के हैं कि जब अकेले एक मूल परब्रह्म के तप-माहात्म्य से उसका विविध रूप से फैलाव हो गया था- ये वर्णन मूलारम्भ की स्थिति के नहीं हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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