गीता रहस्य -तिलक पृ. 245


गीता रहस्य अथवा कर्मयोग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक

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नवां प्रकरण

“नेति नेति”, “एकमेवाद्वितीयम्‌” या “स्वे महिभ्नि प्रतिष्ठित:”[1]- अपनी ही महिमा से अर्थात अन्य किसी की अपेक्षा न करते हुए अकेला ही रहने वाला- इत्यादि जो परब्रह्म के वर्णन उपनिषदों में पाये जाते हैं, वे भी उपरोक्त अर्थ के ही द्दोतक हैं। सारी सृष्टि के मूलारम्भ में चारों ओर जिस एक अनिर्वाच्य तत्त्व के स्फुरण होने की बात इस सूक्त में कही गई है, वही तत्त्व सृष्टि का प्रलय होने पर भी नि:सन्देह शेष रहेगा। अतएव गीता में इसी परब्रह्म कुछ पर्याय से इस प्रकार वर्णन है, कि “सब पदार्थों का नाश होने पर भी जिसका नाश नहीं होता”[2]; और आगे इसी सूक्त के अनुसार स्पष्ट कहा है, कि “वह स‌त्‌ भी नहीं है और असत्‌ भी नहीं है” [3]। परंतु प्रश्न यह है कि जब सृष्टि के मूलारम्भ में निर्गुण ब्रह्म के सिवा और कुछ भी न था, तो फिर वेदों में जो ऐसे वर्णन पाये जाते हैं कि “आरम्भ में पानी, अन्धकार, या आभु और तुच्छ की जाड़ी थी” उनकी क्या व्यवस्था होगी? अतएव तीसरी ऋचा में कवि ने कहा है कि इस प्रकार के जितने वर्णन हैं जैसे कि, सृष्टि के आरम्भ में अन्धकार था, या अन्धकार से आच्छादित पानी था, या आभु (ब्रह्म) और उसको आच्छादित करने वाली माया (तुच्छ) ये दोनों पहले से थे इत्यादि, वे सब उस समय के हैं कि जब अकेले एक मूल परब्रह्म के तप-माहात्म्य से उसका विविध रूप से फैलाव हो गया था- ये वर्णन मूलारम्भ की स्थिति के नहीं हैं।
इस ऋचा में ‘तप’ शब्द से मूल ब्रह्म की ज्ञानमय विलक्षण शक्ति विवक्षित है और उसी का वर्णन चौथी ऋचा में किया गया है[4] “एतावान अस्य महिमाऽतो ज्यायांश्र पूरूष:”[5] इस न्याय से सारी सृष्टि ही जिसकी महिमा कहलाई, उस मूल द्रव्य के विषय में कहना न पड़ेगा कि वह इन सब के परे, सब से श्रेष्ठ और भिन्न है। परंतु दृश्य वस्तु और दृष्‍टा, भोक्ता और भोग्य, आच्छादन करने वाला और आच्छद्य, अन्धकार और प्रकाश, मर्त्य और अमर, इत्यादि सारे द्वैतों को इस प्रकार अलग कर यद्यपि यह निश्चय किया गया कि केवल एक निर्मल चिद्रूपी विलक्षण परब्रह्म ही मूलारम्भ में था; तथापि जब यह बतलाने का समय आया कि इस अनिर्वाच्य निर्गुण अकेले एक तत्त्व से आकाश, जल इत्यादि द्वंद्वात्मक विनाशी सगुण नाम-रूपात्मक विविध सृष्टि या इस सृष्टि की मूलभूत त्रिगुणात्मक प्रकृति कैसे उत्पन्न हुई, तब तो हमारे प्रस्तुत ऋषि ने भी मन, काम, असत्‌ और सत्‌ जैसी द्वैती भाषा का ही उपयोग किया है; और अंत में स्पष्ट कह दिया है कि यह प्रश्न मानवी- बुद्धि की पहुँच के बाहर है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. छां. 7.24.1
  2. गी. 8.20
  3. गी. 13.12
  4. मुं 1.1.9 देखो
  5. ऋ. 10.90.3

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गीता रहस्य अथवा कर्म योग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक
प्रकरण नाम पृष्ठ संख्या
पहला विषय प्रवेश 1
दूसरा कर्मजिज्ञासा 26
तीसरा कर्मयोगशास्त्र 46
चौथा आधिभौतिक सुखवाद 67
पाँचवाँ सुखदु:खविवेक 86
छठा आधिदैवतपक्ष और क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विचार 112
सातवाँ कापिल सांख्यशास्त्र अथवा क्षराक्षर-विचार 136
आठवाँ विश्व की रचना और संहार 155
नवाँ अध्यात्म 178
दसवाँ कर्मविपाक और आत्मस्वातंत्र्य 255
ग्यारहवाँ संन्यास और कर्मयोग 293
बारहवाँ सिद्धावस्था और व्यवहार 358
तेरहवाँ भक्तिमार्ग 397
चौदहवाँ गीताध्यायसंगति 436
पन्द्रहवाँ उपसंहार 468
परिशिष्ट गीता की बहिरंगपरीक्षा 509
- अंतिम पृष्ठ 854

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