तिरश्चीनो विततो रश्मिरेषाम
अध: स्विदासीदुपरि स्विदासीत ।
रेतोधा आसन् महिमान आसन्
स्वधा अवस्तात प्रयति: परस्तात् ॥5॥
5. (यह) रश्मि या किरण या धागा इनमें आड़ा फैल गया; और यदि कहें कि यह नीचे था तो यह ऊपर भी था। (इनमें से कुछ) रेतोधा अर्थात बीजप्रद हुए और (बढ़कर) बड़े भी हुए। उन्हीं की स्वशक्ति इस ओर रही और प्रयति अर्थात प्रभाव उस ओर (व्याप्त) हो रहा।
को श्रद्धा वेद क इह प्र वोचत्
कुत आजाता कुत इयं विसृष्टि:।
अर्वाग देवा अस्य विसर्जनेना- य को वेद यत आबभूव ॥6॥
6. (सत् का) यह विसर्ग यानी पसारा किससे या कहाँ से आया– यह (इससे अधिक) प्र यानी विस्तारपूर्वक यहाँ कौन कहेगा? इसे कौन निश्च्यात्मक जानता है? देव भी इस (सत सृष्टि के) विसर्ग के पश्चात् हुए है। फिर वह जहाँ से हुई, उसे कौन जानेगा?
इयं विसृष्टिर्यत आबभूव
यदि वा दधे यदि वा न ।
यो अस्याध्य्क्ष:परमे व्योमन्
सो अंग वेद यदि वा न वेद ॥7॥
7. (सत का) यह विसर्ग अर्थात फैलाव जहाँ से हुआ अथवा– उसे परम आकाश में रहने वाला इस सृष्टि का जो अध्यक्ष (हिरण्यगर्भ) है, वही जानता होगा; या न भी जानता हो! (कौन कह सके?)