गीता रहस्य -तिलक पृ. 241


गीता रहस्य अथवा कर्मयोग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक

Prev.png
नवां प्रकरण
सूक्त तथा भाषांतर

अतएव उसके सत्यांश के विषय में इस सूक्त के ऋषि यह कहते है, कि–

 नासदासीन्नो सदासीत्तदानीं
नासाद्रजो नो व्योमा परो यत् ।
किमावरीव: कुह कस्य शर्म–
न्नम्भ: किमासीद्गहनं गभीरम् ॥1॥
1. तब अर्थात मूलारम्भ में असत नहीं था और सत भी नही था! अंतरिक्ष नहीं था और उसके परे का आकाश भी न था! (ऐसी अवस्था में) किसने (किस पर) आवरण डाला? कहाँ? किसके सुख के लिये? अगाध और गहन जल (भी) कहाँ था ?[1]
न मृत्युरासीदमृतं न तर्हि
न रात्र्या अह्न आसीत्प्रकेत:।
आनीदवातं स्वधया तदेकं
तस्माद्धान्यन्न पर: किंचनाऽऽस ॥2॥
2. तब मृत्यु अर्थात मृत्युग्रस्त नाशवान दृश्य सृष्टि न थी, अतएव (दूसरा) अमृत अर्थात अविनाशी नित्य पदार्थ (यहाँ भेद) भी न था। (इसी प्रकार) रात्रि और दिन का भेद समझने के लिये कोई साधन (= प्रकेत) न था। (जो कुछ था) वह अकेला एक ही अपनी शक्ति (स्वधा) से वायु के बिना श्वासोच्छवास लेता अर्थात स्फूर्तिमान होता
रहा। इसके अतिरिक्त या इसके परे और कुछ भी न था।

Next.png

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. ऋचा पहली– चौथे चरण में ‘आसीत किम’ यह अंवय करके हमने उक्त अर्थ दिया है; और उसका भावार्थ है ‘पानी तब नहीं था’ (तै.ब्रा. 2.2.9 देखो)।

संबंधित लेख

गीता रहस्य अथवा कर्म योग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक
प्रकरण नाम पृष्ठ संख्या
पहला विषय प्रवेश 1
दूसरा कर्मजिज्ञासा 26
तीसरा कर्मयोगशास्त्र 46
चौथा आधिभौतिक सुखवाद 67
पाँचवाँ सुखदु:खविवेक 86
छठा आधिदैवतपक्ष और क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विचार 112
सातवाँ कापिल सांख्यशास्त्र अथवा क्षराक्षर-विचार 136
आठवाँ विश्व की रचना और संहार 155
नवाँ अध्यात्म 178
दसवाँ कर्मविपाक और आत्मस्वातंत्र्य 255
ग्यारहवाँ संन्यास और कर्मयोग 293
बारहवाँ सिद्धावस्था और व्यवहार 358
तेरहवाँ भक्तिमार्ग 397
चौदहवाँ गीताध्यायसंगति 436
पन्द्रहवाँ उपसंहार 468
परिशिष्ट गीता की बहिरंगपरीक्षा 509
- अंतिम पृष्ठ 854

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                                 अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र    अः