गीता रहस्य -तिलक पृ. 230

गीता रहस्य अथवा कर्मयोग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक

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नवां प्रकरण

[1]सत (आंखों से देख पड़ने वाला) और वह (जो परे है), वाच्य ओैर आनिर्वाच्य, साधार और निराधार, ज्ञात और अविज्ञात (अज्ञेय), सत्य और अमृत,इस प्रकार द्विधा बना हुआ है। परन्तु इस प्रकार ब्रह्म को ‘अनृत’ कहने से अनृत का अर्थ झूठ या असत्य नही है; क्योंकि आगे चल कर तैत्तिरीय उपनिषद में ही कहा है कि “यह अनृत ब्रह्म जगत् की ‘प्रतिष्ठा’ अथवा आधार है, इसे और दूसरे आधार की अपेक्षा नहीं है, एवं जिसने इसको जान लिया वह अभय हो गया।’’ इस वर्णन से स्पष्ट हो जाता है कि शब्द-भेद के कारण भावार्थ में कुछ अन्तर नहीं होता है। ऐसे ही अन्त में कहा है कि “असद्वा इदमग्र आसीत’’- यह सारा जगत पहले असत् (ब्रह्म)था, और ऋग्वेद के[2]। वर्णन के अनुसार आगे चलकर उसी से सत् यानी नाम-रूपात्मक व्यक्त जगत निकला है [3]। इससे भी स्पष्ट हो जाता है कि यहाँ पर ‘असत्’ शब्‍द का प्रयोग अव्यक्त अर्थात आंखों से न देख पड़ने वाले के अर्थ में ही हुआ है; और वेदान्तसूत्रों[4] में बादरायणाचार्य ने उक्त वचनों का ऐसा ही अर्थ किया है। किन्तु जिन लोगों को ‘सत्’ अथवा ‘सत्य’ शब्द का यह अर्थ (ऊपर बतलाये हुए अर्थो में से दूसरा अर्थ) सम्मत है-आंखों से न देख पड़ने पर भी सदैव रहनेवाला अथवा टिकाऊ वे -उस अदृश्य परब्रह्म को ही सत या सत्य कहते हैं कि जो कभी भी नहीं बदलता और नाम-रूपात्मक माया को असत यानि असत्यं अर्थात विनाशी कहते हैं।

उदाहरणार्थ, छान्दोग्य में वर्णन किया गया है कि “सदैव सौम्येदमग्र आसीत् कथमसतः सज्जायेत’’- पहले यह सारा जगत सत (ब्रह्मा) था, जो असत् है यानी नहीं हैं उससे सत्, यानी जो विद्यमान है मौजूद हैं- कैसे उत्पन्न होगा[5]? फिर भी छान्दोग्य उपनिषद में ही इस परब्रह्म के लिये एक स्थान पर अव्यक्त अर्थ में ‘असत्’ शब्द प्रयुक्त हुआ है[6]। एक ही परब्रह्म को भिन्न भिन्न समयों और अर्थों में एक बार ‘सत्’ तो एक बार ‘असत्’ यों परस्पर-विरुद्ध नाम देने की यह गड़बड़-अर्थात वाच्य अर्थ के एक ही होने पर भी निरा शब्द-वाद मचवाने में सहायक- प्रणाली आगे चल कर रुक गई; और अन्त में इतनी ही एक परिभाषा स्थिर हो गई है कि ब्रह्म सत् या सत्य यानी सदैव स्थिर रहनेवाला है, और दृश्य सृष्टि असत् अर्थात् नाशवान है। भगवद्गीता में यही अन्तिम परिभाषा मानी गई है और इसी के अनुसार दूसरे अध्याय[7] में कह दिया है कि परब्रह्म सत और अविनाशी है, एवं नाम-रूप असत् अर्थातृ नाशवान् हैं; और वेदान्तसूत्रों का भी ऐसा ही मत है। फिर भी दृश्य सृष्टि को 'सत' कह कर परब्रह्म को ‘असत्’ या ‘त्यत्’ (वह = परे का) कहने की तैत्तिरीयोपनिषदवाली इस पुरानी परिभाषा का नामोनिशां अब भी बिल्कुल जाता नहीं रहा है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. तै. 2. 6
  2. 10.129.4
  3. तै. 2. 7
  4. 2.1.17
  5. छां. 9.2.1,2
  6. छां.3.19.1
  7. 2.16-18

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गीता रहस्य अथवा कर्म योग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक
प्रकरण नाम पृष्ठ संख्या
पहला विषय प्रवेश 1
दूसरा कर्मजिज्ञासा 26
तीसरा कर्मयोगशास्त्र 46
चौथा आधिभौतिक सुखवाद 67
पाँचवाँ सुखदु:खविवेक 86
छठा आधिदैवतपक्ष और क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विचार 112
सातवाँ कापिल सांख्यशास्त्र अथवा क्षराक्षर-विचार 136
आठवाँ विश्व की रचना और संहार 155
नवाँ अध्यात्म 178
दसवाँ कर्मविपाक और आत्मस्वातंत्र्य 255
ग्यारहवाँ संन्यास और कर्मयोग 293
बारहवाँ सिद्धावस्था और व्यवहार 358
तेरहवाँ भक्तिमार्ग 397
चौदहवाँ गीताध्यायसंगति 436
पन्द्रहवाँ उपसंहार 468
परिशिष्ट गीता की बहिरंगपरीक्षा 509
- अंतिम पृष्ठ 854

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