गीता रहस्य -तिलक पृ. 23

गीता रहस्य अथवा कर्मयोग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक

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पहला प्रकरण

अठारहवें अध्याय के उपसंहार में भगवान ने अपना निश्चित और उत्तम मत और भी एक बार प्रगट किया है- इन सब कर्मों को करना ही चाहिये"[1]। और, अंत में[2], भगवान ने अर्जुन से प्रश्न किया है कि "हे अर्जुन! तेरा अज्ञान-मोह अभी तक नष्ट हुआ कि नहीं" इस पर अर्जुन ने संतोष जनक उतर दियाः-

नष्टो मोहः स्मृतिर्लब्धा त्वत्प्रसादान्माच्युत ।
स्थितोअस्मि गत संदेहः करिष्ये वचनं तव।।

अर्थात् हे अच्युत! स्वकर्तव्य संबंधी मेरा मोह और संदेह नष्ट हो गया हैं, अब मैं आप के कथन अनुसार सब काम करूंगा। यह अर्जुन का केवल मौखिक उतर नहीं था; उसने सचमुच उस युद्ध में भीष्म-कर्ण- जयद्रथ आदि का वध भी किया। इस पर कुछ लोग कहते हैं कि भगवान् ने अर्जुन को जो उपदेष दिया हैं वह केवल निवृति विषयकज्ञान, योग या भक्ति का ही हैं और यही गीता का मुख्य प्रतिपादय विषय भी हैं। परन्तु युद्ध का आरंभ हो जाने के कारण बीच बीच में, कर्म की थोडी सी प्रशंसा करके, भगवान् ने अर्जुन को युद्ध पूरा करने दिया हैं; अर्थात् युद्ध का समाप्त करना मुख्य बात नहीं हैं- उसको सिर्फ आनुषंगिक या अर्थ वादात्मक ही मानना चाहिये। परन्तु ऐसे अधर और कमज़ोर युक्तिवाद से गीता के उपकमोप संहार और परिणाम की उपपति ठीक ठीक नहीं हो सकती यहा कुरुक्षेत्र पर तो इसी बात के महत्त्व को दिखाने की आवश्यकता थी कि स्व धर्म संबंधी अपने कर्तव्य को मरणार्पंत, अनेक कष्ट और बाधाएँ सह कर भी करते रहना चाहिये। इस बात को सिद्ध करने के लिये श्रीकृष्ण ने गीता भर में कहीं भी बे-सिर पैर का कारण नहीं बतलाया हैं, जैसा ऊपर लिखे हुए कुछ लोगों के आक्षेप में कहा गया हैं।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. गी. 18.6
  2. गी. 18.72

संबंधित लेख

गीता रहस्य अथवा कर्म योग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक
प्रकरण नाम पृष्ठ संख्या
पहला विषय प्रवेश 1
दूसरा कर्मजिज्ञासा 26
तीसरा कर्मयोगशास्त्र 46
चौथा आधिभौतिक सुखवाद 67
पाँचवाँ सुखदु:खविवेक 86
छठा आधिदैवतपक्ष और क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विचार 112
सातवाँ कापिल सांख्यशास्त्र अथवा क्षराक्षर-विचार 136
आठवाँ विश्व की रचना और संहार 155
नवाँ अध्यात्म 178
दसवाँ कर्मविपाक और आत्मस्वातंत्र्य 255
ग्यारहवाँ संन्यास और कर्मयोग 293
बारहवाँ सिद्धावस्था और व्यवहार 358
तेरहवाँ भक्तिमार्ग 397
चौदहवाँ गीताध्यायसंगति 436
पन्द्रहवाँ उपसंहार 468
परिशिष्ट गीता की बहिरंगपरीक्षा 509
- अंतिम पृष्ठ 854

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