गीता रहस्य -तिलक पृ. 229

गीता रहस्य अथवा कर्मयोग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक

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नवां प्रकरण

हेकल के जड़ अद्वैत में और अध्यात्मशास्त्र के अद्वैत में यह अत्यन्त महत्त्व पूर्ण भेद है। अद्वैत वेदान्त का यही सिद्धान्त गीता में है, और एक पुराने कवि ने समग्र अद्वैत वेदान्त के सार का वर्णन यों किया है-

श्‍लोकोर्धेन प्रवक्ष्यामि यदुक्‍तं ग्रन्‍थकोटिभिः।
ब्रह्म सत्‍यं जगन्मिथ्‍या जीवो ब्रह्मैव नापरः।।

“करोडों ग्रन्थों का सार आधे श्‍लोक में बतलाता हूं-

  1. ब्रहम सत्य है,
  2. जगत अर्थात जगत के सभी नाम-रूप मिथ्या अथवा नाशवान हैं, और
  3. मनुष्य का आत्मा एवं ब्रहम मूल में एक ही है, दो नहीं।’’

इस श्‍लोक का ‘मिथ्या’ शब्द यदि किसी के कानों में चुभता हो, तो वह बृहदारण्यक उपनिषद के अनुसार इसके तीसरे चरण का ‘ब्रह्ममृतं जगत्सत्यम्’ पाठान्तर खुशी से कर ले; परन्तु पहले ही बतला चुके हैं कि इससे भावार्थ नहीं बदलता है। फिर भी कुछ वेदान्ती इस बात को लेकर फिजूल झगड़ते रहते हैं कि समूचे दृश्य जगत् के अदृश्य किन्तु नित्य परब्रह्मरूपी मूलतत्त्व को सत् (सत्य) कहें या असत (असत्य-अमृत)। अतएव इसका यहाँ थोड़ा सा खुलासा किये देते हैं कि इस बात का ठीक ठीक बीज क्या है। इस एक ही सत या सत्य शब्द के दो भिन्न भिन्न अर्थ होते हैं, इसी कारण यह झगड़ा मचा हुआ हैं; और यदि ध्यान से देखा जावे कि प्रत्येक पुरुष इस ‘सत्’ शब्द का किस अर्थ में उपयोग करता है, तो कुछ भी गड़बड़ नहीं रह जाती। क्योंकि यह भेद तो सभी को एक सा मंजूर है कि ब्रह्म अदृश्य होने पर भी नित्य है, और नाम-रूपात्मक जगत् दृश्य होने पर भी पल-पल में बदलने-वाला है। इस सत् या सत्य शब्द का व्यावहारिक अर्थ है

  1. आंखो के आगे अभी प्रत्यक्ष देख पड़ने वाला अर्थात् व्यक्त (फिर कल उसका दृश्य स्वरूप चाहे बदले चाहे न बदले); और दूसरा अर्थ है।
  2. वह अव्यक्त स्वरूप कि जो सदैव एक सा रहता है, आंखों से भले ही न देख पड़े पर जो कभी न बदले। इनमें से पहला अर्थ जिनको सम्मत है, वे आंखों से दिखाई देने वाले नाम-रूपात्मक जगत् को सत्य कहते हैं, और परब्रह्म को इसके विरुद्ध अर्थात् आंखो से न देख पड़ने वाला अतएव असत् अथवा असत्य कहते हैं। उदाहरणार्थ, तैत्तिरीय उपनिषद में दृश्य सृष्टि के लिये ‘सत्’ और जो दृश्य सृष्टि से परे है, उसके लिये ‘त्यत्’ (अर्थात् जो कि परे है) अथवा ‘अमृत’ (आंखों से न देख पड़ने वाला) शब्दों का उपयोग करके ब्रह्म का वर्णन इस प्रकार किया है जो कुछ मूल में या आरम्भ में या वही द्रव्य “सच्‍च त्यच्चाभवत्। निरूक्तं चानिरूक्तं च। निलियनं चालियनं च। विज्ञानं चाविज्ञानं च। सत्यं चानृतं च ।"
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टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

गीता रहस्य अथवा कर्म योग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक
प्रकरण नाम पृष्ठ संख्या
पहला विषय प्रवेश 1
दूसरा कर्मजिज्ञासा 26
तीसरा कर्मयोगशास्त्र 46
चौथा आधिभौतिक सुखवाद 67
पाँचवाँ सुखदु:खविवेक 86
छठा आधिदैवतपक्ष और क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विचार 112
सातवाँ कापिल सांख्यशास्त्र अथवा क्षराक्षर-विचार 136
आठवाँ विश्व की रचना और संहार 155
नवाँ अध्यात्म 178
दसवाँ कर्मविपाक और आत्मस्वातंत्र्य 255
ग्यारहवाँ संन्यास और कर्मयोग 293
बारहवाँ सिद्धावस्था और व्यवहार 358
तेरहवाँ भक्तिमार्ग 397
चौदहवाँ गीताध्यायसंगति 436
पन्द्रहवाँ उपसंहार 468
परिशिष्ट गीता की बहिरंगपरीक्षा 509
- अंतिम पृष्ठ 854

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