गीता रहस्य अथवा कर्मयोग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक
नवां प्रकरण
हेकल के जड़ अद्वैत में और अध्यात्मशास्त्र के अद्वैत में यह अत्यन्त महत्त्व पूर्ण भेद है। अद्वैत वेदान्त का यही सिद्धान्त गीता में है, और एक पुराने कवि ने समग्र अद्वैत वेदान्त के सार का वर्णन यों किया है- श्लोकोर्धेन प्रवक्ष्यामि यदुक्तं ग्रन्थकोटिभिः। “करोडों ग्रन्थों का सार आधे श्लोक में बतलाता हूं-
इस श्लोक का ‘मिथ्या’ शब्द यदि किसी के कानों में चुभता हो, तो वह बृहदारण्यक उपनिषद के अनुसार इसके तीसरे चरण का ‘ब्रह्ममृतं जगत्सत्यम्’ पाठान्तर खुशी से कर ले; परन्तु पहले ही बतला चुके हैं कि इससे भावार्थ नहीं बदलता है। फिर भी कुछ वेदान्ती इस बात को लेकर फिजूल झगड़ते रहते हैं कि समूचे दृश्य जगत् के अदृश्य किन्तु नित्य परब्रह्मरूपी मूलतत्त्व को सत् (सत्य) कहें या असत (असत्य-अमृत)। अतएव इसका यहाँ थोड़ा सा खुलासा किये देते हैं कि इस बात का ठीक ठीक बीज क्या है। इस एक ही सत या सत्य शब्द के दो भिन्न भिन्न अर्थ होते हैं, इसी कारण यह झगड़ा मचा हुआ हैं; और यदि ध्यान से देखा जावे कि प्रत्येक पुरुष इस ‘सत्’ शब्द का किस अर्थ में उपयोग करता है, तो कुछ भी गड़बड़ नहीं रह जाती। क्योंकि यह भेद तो सभी को एक सा मंजूर है कि ब्रह्म अदृश्य होने पर भी नित्य है, और नाम-रूपात्मक जगत् दृश्य होने पर भी पल-पल में बदलने-वाला है। इस सत् या सत्य शब्द का व्यावहारिक अर्थ है
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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