गीता रहस्य -तिलक पृ. 228

गीता रहस्य अथवा कर्मयोग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक

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नवां प्रकरण

दृश्यरूपी सगुण अतएव विनाशी प्रकृति में ऐसे नियम बना देने का सामर्थ्य नहीं रह सकता कि जो त्रिकाल में भी अबाधित रहे। यहाँ तक जो विवेचन किया गया है, उससे ज्ञात होगा कि जगत्, जीव और परमेश्वर-अथवा अध्यात्मशास्त्र की परिभाषा के अनुसार माया (अर्थात् माया से उत्पन्न किया हुआ जगत्), आत्मा और परब्रह्म-का स्वरूप क्या है एवं इनका परस्पर क्या सम्बन्ध है। अध्यात्म दृष्टि से जगत की सभी वस्तुओं के दो वर्ग होते हैं- ‘नाम-रूप’ और नाम-रूप से आच्छादित‘नित्य तत्त्व’। इनमें से नाम-रूपों को ही सगुण माया अथवा प्रकृति कहते हैं। परन्तु नाम-रूपों को निकाल डालने पर जो ‘नित्य द्रव्य’ बच रहता है, वह निर्गुण रहना चाहिये। क्योंकि कोई भी गुण बिना नाम-रूप के रह नहीं सकता। यह नित्य और अव्यक्त तत्त्व ही परब्रह्म है, और मनुष्य की दुर्बल इन्द्रियों को इस निर्गुण परब्रह्म में ही सगुण माया उपजी हुई देख पड़ती है। यह माया सत्य पदार्थ नही है; परब्रह्म ही सत्य अर्थात त्रिकाल में भी अबाधित और कभी भी न पलटने वाली वस्तु है। दृश्य सृष्टि के नाम-रूप और उनसे आच्छादित परब्रह्म के स्वरूप सम्बन्धी ये सिद्धान्त हुए। अब इसी न्याय से मनुष्य का विचार करें तो सिद्ध होता है कि मनुष्य की देह और इन्द्रियां दृश्य सृष्टि के अन्यान्य पदार्थों के समान नाम-रूपात्मक अर्थात् अनित्य माया के वर्ग में है; और देहेन्द्रियों से ढका हुआ आत्मा नित्यस्वरूपी परब्रह्म की श्रेणी का है; अथवा ब्रह्म और आत्मा एक ही हैं।

ऐसे अर्थ से बाह्य सृष्टि को स्वतन्त्र, सत्य पदार्थ न मानने वाले अद्वैत-सिद्धान्त का और बौद्ध-सिद्धान्त का भेद अब पाठकों के ध्यान में आ ही गया होगा। विज्ञान-वादी बौद्ध कहते हैं कि बाह्य सृष्टि ही नहीं है, वे अकेले ज्ञान को ही सत्‍य मानते है, और वेदान्तशास्‍त्री ब्राहय सृष्टि के नित्य बदलते रहनेवाले नाम-रूप को ही असत्य मानकर यह सिद्धान्त करते हैं कि इस नाम-रूप के मूल में और मनुष्य की देह में-दोनों में-एक ही आत्मरूपी, नित्य द्रव्य भरा हुआ है; एवं यह एक आत्मतत्त्व ही अन्तिम सत्य है। सांख्य मत-वालों ने ‘अविभक्तं विभक्तेषु’ के न्याय से सृष्ट पदार्थों की अनेकता के एकीकरण को जड़ प्रकृति भर के लिये ही स्वीकार कर लिया है। परन्तु वेदान्तियों ने सत्कार्य-वाद की बाधा को दूर करके निश्चय किया है जो ‘पिण्ड में है वही ब्रहाण्‍ड में है;’ इस कारण अब सांख्यों के असंख्य पुरुषों और प्रकृति का एक ही परमात्मा में अद्वैत से या अविभाग से समावेश हो गया है। शुद्ध आधिभौतिक पंडित हेकल अद्वैती है सही; पर वह अकेली जड़ प्रकृति में ही चैतन्य का भी संग्रह करता है; और वेदान्त, जड़ को प्रधानता न दे कर यह सिद्धान्त स्थिर करता है कि दिक्कालों से अमर्यादित, अमृत और स्वतन्त्र चिद्रूपी परब्रह्म ही सारी सृष्टि का मूल है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

गीता रहस्य अथवा कर्म योग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक
प्रकरण नाम पृष्ठ संख्या
पहला विषय प्रवेश 1
दूसरा कर्मजिज्ञासा 26
तीसरा कर्मयोगशास्त्र 46
चौथा आधिभौतिक सुखवाद 67
पाँचवाँ सुखदु:खविवेक 86
छठा आधिदैवतपक्ष और क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विचार 112
सातवाँ कापिल सांख्यशास्त्र अथवा क्षराक्षर-विचार 136
आठवाँ विश्व की रचना और संहार 155
नवाँ अध्यात्म 178
दसवाँ कर्मविपाक और आत्मस्वातंत्र्य 255
ग्यारहवाँ संन्यास और कर्मयोग 293
बारहवाँ सिद्धावस्था और व्यवहार 358
तेरहवाँ भक्तिमार्ग 397
चौदहवाँ गीताध्यायसंगति 436
पन्द्रहवाँ उपसंहार 468
परिशिष्ट गीता की बहिरंगपरीक्षा 509
- अंतिम पृष्ठ 854

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