गीता रहस्य -तिलक पृ. 226

गीता रहस्य अथवा कर्मयोग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक

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नवां प्रकरण

इस मत को ‘गुणपरिणाम-वाद’ कहते हैं। क्योंकि इसमें यह प्रतिपादन किया जाता है कि, एक मूल सगुण प्रकृति के गुण-विकास से ही सारी व्यक्ति सृष्टि पैदा हुई है। किन्तु इन दोनों वादों को अद्वैती वेदान्ती स्वीकार नहीं करते। परमाणु असंख्य हैं, इसलिये अद्वैत मत के अनुसार वे जगत् का मूल हो नहीं सकते, और रह गई प्रकृति, सो यद्यपि वह एक हो तो भी उसके पुरुष से भिन्न और स्वतन्त्र होने के कारण अद्वैत सिद्धान्त से यह द्वैत भी विरुद्ध है। परन्तु इस प्रकार इन दोनों वादों को त्याग देने से और कोई न कोई उपपत्ति इस बात की बतलानी होगी कि एक निगुर्ण ब्रह्म से सगुण सृष्टि कैसे उपजी है। क्योंकि सत्कार्य-वाद के अनुसार निर्गुण से सगुण हो नहीं सकता। इस पर वेदान्ती कहते हैं कि सत्कार्य-वाद के इस सिद्धान्त का उपयोग वही हैं जहाँ कार्य और कारण दोनों वस्तुएं सत्य हों। परन्तु जहाँ मूलवस्तु एक ही है और जहाँ उसके भिन्न भिन्न दृश्य ही पलटते रहते हैं, वहाँ इस न्याय का उपयोग नहीं होता। क्योंकि हम सदैव देखते हैं कि एक ही वस्तु के भिन्न भिन्न दृश्यों का देख पड़ना उस वस्तु का धर्म नहीं; किन्तु द्रष्टा-देखने वाले पुरुष के दृष्टिभेद के कारण ये भिन्न भिन्न दृश्य उत्पन्न हो सकते हैं[1] [2]

इस न्याय का उपयोग निर्गुण ब्रह्म और सगुण जगत के लिये करने पर कहेंगे कि ब्रह्मा तो निर्गुण है पर मनुष्य के इन्द्रिय-धर्म के कारण उसी में सगुणत्त्व की झलक उत्पन्न हो जाती है। यह विवर्त-वाद है। विवर्त-वाद में यह मानते हैं कि एक ही मूल सत्य द्रव्‍य पर अनेक असत्य अर्थात सदा बदलते रहने वाले दृश्यों का अध्यारोप होता है; ओर गुणपरिणाम-वाद में पहले से ही दो सत्य द्रव्य मान लिये जाते हैं,जिनमें से एक के गुणों का विकास हो कर जगत की नाना गुणायुक्त अन्यान्य वस्तुएं उपजती रहती हैं। रस्सी में सर्प का भास होना विवर्त है; और दूध से दही बन जाना गुण-परिणाम है। इसी कारण वेदान्तसार नामक ग्रन्थ की एक प्रति में इन दोनों वादों के लक्षण इस प्रकार बतलाये गये हैः-

यस्तात्विकोऽन्थाभावः परिणाम उदीरितः।
अतात्विकोअन्यथाभावो विवर्तः स उदीरितः।।

“किसी मूल वस्तु से जब तात्विक अर्थात् सचमुच ही दूसरे प्रकार की वस्तु बनती है, तब उसको (गुण) परिणाम कहते हैं और जब ऐसा न हो कर मूल वस्तु ही कुछ की कुछ (अतात्विक) भासने लगती है, तब उसे विवर्त कहतेहैं’’[3]। आरम्भ-वाद नैय्यायिकों का है, गुणपरिणाम-वाद सांख्यों का है और विवर्त-वाद अद्वैती वेदान्तियों का है। अद्वैती वेदान्ती परमाणु या प्रकृति, इन दोनों सगुण वस्तुओं को निर्गुण ब्रह्म से भिन्न और स्वतन्त्र नहीं मानते; परन्तु फिर यह आक्षेप होता है कि सत्कार्य-वाद के अनुसार निर्गुण से सगुण की उत्पत्ति होना असम्भव है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. ‘अंग्रेजी में इसी अर्थ को व्यक्त करना हो, तो यों कहेंगे; -appearances are the results of subjective conditions, viz. the sense of the observer and not of the thing in itself.
  2. गी. र. 31
  3. वे.सा.21

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गीता रहस्य अथवा कर्म योग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक
प्रकरण नाम पृष्ठ संख्या
पहला विषय प्रवेश 1
दूसरा कर्मजिज्ञासा 26
तीसरा कर्मयोगशास्त्र 46
चौथा आधिभौतिक सुखवाद 67
पाँचवाँ सुखदु:खविवेक 86
छठा आधिदैवतपक्ष और क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विचार 112
सातवाँ कापिल सांख्यशास्त्र अथवा क्षराक्षर-विचार 136
आठवाँ विश्व की रचना और संहार 155
नवाँ अध्यात्म 178
दसवाँ कर्मविपाक और आत्मस्वातंत्र्य 255
ग्यारहवाँ संन्यास और कर्मयोग 293
बारहवाँ सिद्धावस्था और व्यवहार 358
तेरहवाँ भक्तिमार्ग 397
चौदहवाँ गीताध्यायसंगति 436
पन्द्रहवाँ उपसंहार 468
परिशिष्ट गीता की बहिरंगपरीक्षा 509
- अंतिम पृष्ठ 854

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