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नवां प्रकरण
इसी से अब यहाँ एक और शंका होती है- यदि कहें कि इन्द्रियों ने अपने अज्ञान से मूल ब्रह्म पर जिन गुणों का अध्यारोप किया था, वे गुण ब्रह्म में नहीं हैं, तो क्या और दूसरे गुण परब्रह्म में न होगें? और यदि मान लो कि हैं, तो फिर वह निर्गुण कहाँ रहा? किन्तु कुछ और अधिक सूक्ष्म विचार करने से ज्ञात होगा कि यदि मूल ब्रह्म में इन्द्रियों के द्वारा अध्यारोपित किये गये गुणों के अतिरिक्त और दूसरे गुण हों भी, तो हम उन्हें मालूम ही कैसे कर सकेंगे? क्योंकि गुणों को मनुष्य अपनी इन्द्रियों से ही तो जानता है, और जो गुण इन्द्रियों को अगोचर हैं, वे जाने नहीं जाते। सारांश, इन्द्रियों के द्वारा अध्यारोपित गुणों के अतिरिक्त परब्रह्म में यदि ओैर कुछ दूसरे गुण हों, तो उनको जान लेना हमारे सामर्थ्य से बाहर है; जिन गुणों को जान लेना हमारे काबू मे नहीं, उनको परब्रह्म में मानना भी न्यायशास्त्र की दृष्टि से योग्य नहीं है। अतएव गुण शब्द का ’मनुष्य को ज्ञात होने वाले गुण’ अर्थ करके वेदान्ती लोग सिद्धान्त किया करते हैं कि ब्रह्म ‘निगुर्ण’ है न तो अद्येत वेदान्त भी यह कहता है और न कोई दूसरा भी कह सकेगा कि मूल परब्रह्मस्वरूप में ऐसा गुण या ऐसी शक्ति भी न होगी कि जो मनुष्य के लिए अतर्क्य है।
किंबहुना, यह तो पहले ही बतला दिया है कि वेदान्ती लोग भी इन्द्रियों के उक्त अज्ञान माया को उसी मूल परब्रह्म की एक अतर्क्य शक्ति कहा करते हैं। त्रिगुणात्मक माया अथवा प्रकृति कोई दूसरी स्वतन्त्र वस्तु नहीं है; किन्तु एक ही निगुर्ण ब्रह्म पर मनुष्य की इन्द्रियां अज्ञान से सगुण दृश्यों का अध्यारोप किया करती हैं। इसी मत को ’विवर्त-वाद’ कहते हैं। अद्वैत वेदान्त के अनुसार यह उपपत्ति इस बात की हुई कि जब निर्गुण ब्रह्मा एक ही मूलतत्त्व है, तब नाना प्रकार का सगुण जगत पहले दिखाई कैसे देने लगा। कणाद-प्रणीत न्यायशास्त्र में असंख्य परमाणु जगत के मूल कारण माने गये हैं और नैय्यायिक इन परमाणुओं को सत्य मानते हैं। इसलिये उन्होंने निश्चय किया है कि जहाँ इन असंख्य परमाणुओं का संयोग होने लगा, वहाँ सृष्टि के अनेक पदार्थ बनने लगते हैं। परमाणुओं के संयोग का आरम्भ होने पर इस मत से सृष्टि का निर्माण होता है इसलिये इसको ‘आरम्भवाद’ कहते हैं। परन्तु नैय्यायिकों के असंख्य परमाणुओं के मत को सांख्य मार्ग वाले नहीं मानते वे कहते हैं कि जड़सृष्टि का मूल कारण ‘एक, सत्य और त्रिगुणात्मक प्रकृति’ ही है, एवं इस त्रिगुणात्मक प्रकृति के गुणों के विकास से अथवा परिणाम से व्यक्त सृष्टि बनती है।
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