गीता रहस्य -तिलक पृ. 223

गीता रहस्य अथवा कर्मयोग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक

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नवां प्रकरण

और अब सूक्ष्म शोध करने से निश्चय हो गया है कि आंखों से देख पड़ने वाले लाल, हरे, पीले, आदि रंग भी मूल में एक ही सूर्य-प्रकाश के विकार हैं; सूर्य-प्रकाश स्वयं एक ही प्रकार की गति ही है। जबकि ‘गति’ मूल में ही है, पर कान उसे शब्द और आंखें उसी को रंग बतलाती है; तब यदि इसी न्याय का उपयोग कुछ अधिक व्यापक रीति से सारी इन्द्रियों के लिये किया जावे, तो सभी नाम-रूपों की उत्पति के सम्बन्ध में सत्कार्य-वाद की सहायता के बिना ही ठीक ठीक उपपत्ति इस प्रकार लगाई जा सकती है, कि किसी भी एक अविकार्य वस्तु पर मनुष्य की भिन्न भिन्न इन्द्रियां अपनी-अपनी ओर से शब्द-रूप आदि अनेक नाम-रूपात्मक गुणों का ‘अध्यारोप’ करके नाना प्रकार के दृश्य उपजाया करती है; परन्तु कोई आवश्‍यकता नहीं है कि मूल की एक ही वस्तु में ये दृश्य, ये गुण अथवा ये नाम-रूप होवें ही। और इसी अर्थ को सिद्ध करने के लिये रस्सी में सर्प का, अथवा सीप में चांदी का भ्रम होना, या आंख में उंगली डालने से एक के दो पदार्थ देख पड़ना अथवा अनेक रंगों के चश्मे लगाने पर एक पदार्थ का रंग-बिरंगा देख पड़ना,आदि अनेक दृष्टान्त वेदान्तशास्त्र में दिये जाते हैं।

मनुष्य की इन्द्रियां उससे कभी छूट नहीं जाती हैं, इसी कारण जगत के नाम-रूप अथवा गुण के नयन-पथ में गोचर तो अवश्य होंगे; परन्तु यह नहीं कहा जा सकता कि इन्द्रियवान् मनुष्य की दृष्टि से जगत् का जो सापेक्ष स्वरूप देख पड़ता है, वही इस जगत् के मूल का अर्थात् निरपेक्ष और नित्य स्वरूप है। मनुष्य की वर्तमान इन्द्रियों की अपेक्षा यदि उसे न्यूनाधिक इन्द्रियां प्राप्त हो जावे, तो वह सृष्टि उसे जैसी आज कल देख पड़ती है वैसी ही न दीखती रहेगी। और यदि यह ठीक है तो जब कोई पूछे कि द्रष्टा की- देखने वाले मनुष्य की- इन्द्रियों की अपेक्षा न करके बतलाओ कि सृष्टि के मूल में जो तत्त्व हैं उसका नित्य और सत्य स्वरूप क्या है; तब यही उत्तर देना पड़ता है कि वह मूलतत्त्व है तो निर्गुण, परन्तु मनुष्य को सगुण दिखाई देता है-यह मनुष्य की इन्द्रियों का धर्म है, न कि मूलवस्तु का गुण। आधिभौतिक शास्त्र में उन्हीं बातों की जांच होती है कि जो इन्द्रियों को गोचर हुआ करती हैं और यही कारण है कि वहाँ इस ढंग के प्रश्न होते ही नहीं। परन्तु मनुष्य और उसकी इन्द्रियों के नष्ट-प्राय हो जाने से यह नहीं कह सकते कि ईश्वर का भी सफाया हो जाता है अथवा मनुष्य को वह अमुक प्रकार का देख पड़ता है इसलिये उसका त्र‍िकालाबाधित, नित्य और निरपेक्ष स्वरूप भी वही होना चाहिये।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

गीता रहस्य अथवा कर्म योग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक
प्रकरण नाम पृष्ठ संख्या
पहला विषय प्रवेश 1
दूसरा कर्मजिज्ञासा 26
तीसरा कर्मयोगशास्त्र 46
चौथा आधिभौतिक सुखवाद 67
पाँचवाँ सुखदु:खविवेक 86
छठा आधिदैवतपक्ष और क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विचार 112
सातवाँ कापिल सांख्यशास्त्र अथवा क्षराक्षर-विचार 136
आठवाँ विश्व की रचना और संहार 155
नवाँ अध्यात्म 178
दसवाँ कर्मविपाक और आत्मस्वातंत्र्य 255
ग्यारहवाँ संन्यास और कर्मयोग 293
बारहवाँ सिद्धावस्था और व्यवहार 358
तेरहवाँ भक्तिमार्ग 397
चौदहवाँ गीताध्यायसंगति 436
पन्द्रहवाँ उपसंहार 468
परिशिष्ट गीता की बहिरंगपरीक्षा 509
- अंतिम पृष्ठ 854

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