गीता रहस्य -तिलक पृ. 22

गीता रहस्य अथवा कर्मयोग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक

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पहला प्रकरण

इसका फल यह हुआ कि जो अर्जुन पहले भीष्म आदि गुरुजनों की हत्या के भय के कारण युद्ध से पराड़मुख हो रहा था, वही अब गीता का उपदेश सुन अपना यथोचित कर्तव्य समझ गया और अपनी स्वतंत्र इच्छा से युद्ध के लिये तत्पर हो गया। यदि हमें गीता के उपदेश का रहस्य जानना हैं तो उपक्रमोपसंहार और परिणाम को अवश्य ध्यान में रखना पड़ेगा। भक्ति से मोक्ष कैसे मिलता हैं ब्रह्माज्ञान या पातंजलयोग से मोक्ष की सिद्धि कैसे होती हैं इत्यादि, केवल निवृतिमार्ग या कर्म त्यागरूप संन्यास-धर्म-संबंधी प्रशनों की चर्चा करने का कुछ उदेश्य नहीं था। भगवान् श्रीकृष्ण का यह उदेश्य नहीं था कि अर्जुन संन्यास-दीक्षा लेकर और बैरागी बन कर भीख मांगता फिरे, या लंगोटी लगाकर और नीम क पते खा कर मृत्युपर्यंत हिमालय में योगाभ्यास साधता रहे। भगवान का यह भी उदेश्य नहीं था कि अर्जुन धनुष-बाण को फेक दे और हाथ में वीणा तथा मृदंग लेकर कुरुक्षेत्र की धर्मभूमि में उपस्थित भारतीय क्षात्र समाज के सामने, भगवन नाम का उच्चारण करता हुआ, बृहनला के समान और एक बार अपना नाच दिखावे।
अब तो अज्ञातवास पूरा हो गया। और अर्जुन को कुरुक्षेत्र में खड़े होकर और ही प्रकार का नाच नाचना था। गीता कहते-कहते स्थान-स्थान पर भगवान ने अनेक प्रकार के बतलाये हैं; और अंत में अनुमान- दर्शक अत्यंत महत्त्व के 'तस्मात[1]' पद का उपयोग करके, अर्जुन को यही निश्चित अर्थक कर्म- विषयक उपदेश दिया है कि "तस्माद युध्यस्व भारत"- इसलिये हे अर्जुन! तू युद्ध कर[2] "तस्मादुतिष्ठ कौंतेय युद्धाय कृतनिश्चयः"- इसलिये हे कौंतेय अर्जुन! तू युद्ध का निश्चय करके उठ [3] 'तस्मादसक्तः सततं कार्य कर्म समाचार'- इसलिये तू मोह छोड़कर अपना कर्तव्य कर्म कर [4] "मामनुस्सार युध्य च"- इसलिये मेरा स्मरण कर और लड़[5] "करने कराने वाला सब कुछ मैं ही हूँ, तू केवल निमित है, इसलिये युद्ध करके 'शत्रुओं को जीत"[6] "शास्त्रोक्त कर्तव्य करना तुझे उचित है"[7]

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. इसीलिये
  2. गी.2.18
  3. गी. 2.37
  4. गी. 3.16
  5. गी.8.7
  6. गी. 11.33
  7. गी. 16.24

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गीता रहस्य अथवा कर्म योग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक
प्रकरण नाम पृष्ठ संख्या
पहला विषय प्रवेश 1
दूसरा कर्मजिज्ञासा 26
तीसरा कर्मयोगशास्त्र 46
चौथा आधिभौतिक सुखवाद 67
पाँचवाँ सुखदु:खविवेक 86
छठा आधिदैवतपक्ष और क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विचार 112
सातवाँ कापिल सांख्यशास्त्र अथवा क्षराक्षर-विचार 136
आठवाँ विश्व की रचना और संहार 155
नवाँ अध्यात्म 178
दसवाँ कर्मविपाक और आत्मस्वातंत्र्य 255
ग्यारहवाँ संन्यास और कर्मयोग 293
बारहवाँ सिद्धावस्था और व्यवहार 358
तेरहवाँ भक्तिमार्ग 397
चौदहवाँ गीताध्यायसंगति 436
पन्द्रहवाँ उपसंहार 468
परिशिष्ट गीता की बहिरंगपरीक्षा 509
- अंतिम पृष्ठ 854

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