गीता रहस्य अथवा कर्मयोग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक
नवां प्रकरण
अतएव यहाँ ब्रह्म के, और उसके साथ ही साथ आत्मा के सच्चे स्वरूप का थोड़ा सा खुलासा कर देना आवश्यक है। आत्मा के सान्निध्य से जड़ात्मक बुद्धि में उत्पन्न होने वाले धर्म को चित् अर्थात् ज्ञान कहते हैं। परन्तु जबकि बुद्धि के इस धर्म को आत्मा पर लादना उचित नहीं है, तब तात्त्विक दृष्टि से आत्मा के मूल स्वरूप को भी निर्गुण और अज्ञेय ही मानना चाहिये। अतएव कई एकों का मत है कि यदि ब्रह्म आत्मस्वरूपी है तो इन दोनों को, या इनमें से किसी भी एक को, चिद्रूपी कहना कुछ अंशों में गौण ही है। यह आक्षेप अकेले चिद्रूप पर ही नहीं है; किन्तु यह आप ही आप सिद्ध होता है कि परब्रह्म के लिये सत् विशेषण का प्रयोग करना भी उचित नहीं है। क्योंकि सत् और असत्, ये दोनों धर्म परस्पर-विरुद्ध और सदैव परस्पर-सापेक्ष हैं अर्थात् भिन्न भिन्न दो वस्तुओं का निर्देश करने के लिये कहे जाते हैं। जिसने कभी ‘उजेला’ न देखा हो, वह अँधेरे की कल्पना नहीं कर सकता; यही नहीं किन्तु ‘उजेला’ और ‘अँधेरा’ इन शब्दों की यह जोड़ी ही उसको सूझ न पड़ेगी। सत् और असत् शब्द की जोड़ी (द्वन्द्व) के लिये यही न्याय उपयोगी है। जब हम देखते हैं कि कुछ वस्तुओं का नाश होता है, तब हम सब वस्तुओं के असत् (नाश होने वाली) और सत् (नाश न होने वाली), ये दो भेद करने लगते हैं; अथवा सत् और असत् शब्द सूझ पड़ने के लिये मनुष्य की दृष्टि के आगे दो प्रकार के विरुद्ध धर्मों की आवश्यकता होती है। अच्छा, यदि आरम्भ में एक ही वस्तु थी, तो द्वैत के उत्पन्न होने पर दो वस्तुओ के उद्देश्य से जिन सापेक्ष सत् और असत् शब्दों का प्रचार हुआ है, उनका प्रयोग इस मूलवस्तु के लिये कैसे किया जावेगा? यही कारण है जो ऋग्वेद के नासदीय सूक्त[1] में परब्रह्म को कोई भी विशेषण न दे कर सृष्टि के मूलतत्त्व का वर्णन इस प्रकार किया है कि ‘‘जगत् के आरम्भ में न तो सत् था और न असत् ही था; जो कुछ था वह एक ही था।“ इन सत् और असत् शब्दों की जोड़ियाँ (अथवा द्वन्द्व) तो पीछे से निकली हैं; और गीता[2] में कहा है कि सत और असत्, शीत और उष्ण आदि द्वन्द्वों से जिसकी बुद्धि मुक्त हो जावे, वह इन सब द्वन्द्वों से परे अर्थात् निर्द्वन्द्व ब्रह्मपद को पहुँच जाता है। इससे देख पड़ेगा कि अध्यात्मशास्त्र के विचार कितने गहन और सूक्ष्म हैं। केवल तर्कदृष्टि से विचार करें तो परब्रह्म का अथवा आत्मा का भी अज्ञेयत्व स्वीकार किये बिना गति ही नहीं रहती। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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