गीता रहस्य अथवा कर्मयोग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक
पहला प्रकरण
इस महत्पाप के भय से उसका मन एकदम दुःखित और क्षुब्ध हो गया। एक और तो क्षात्र धर्म उससे कह रहा था कि 'युद्धकर'; और, दूसरी और से पितृ भक्ति, गुरुभक्ति, बंधुप्रेम, सुहत्प्रीति आदि अनेक धर्म उसे जबरदस्ती से पीछे खींच रहे थे। यह बड़ा भारी संकट था। यदि लड़ाई करें तो अपने ही रिस्तेदारों की, गुरुजनों की और बंधु-मित्रों की हत्या करके महापातक के भागी बनें और लड़ाई न करें तो क्षात्रधर्म से च्युत होना पड़े। इधर देखो तो कुआँ और उधर देखो तो खाई। उस समय अर्जुन की अवस्था वैसी ही हो गई थी जैसी जोर से टकराती हुई दो रेलगाडियों के बीच में, किसी असहाय मनुष्य की हो जाती है। यद्यपि अर्जुन कोई साधारण पुरुष नहीं था- वह एक बड़ा भारी योद्धा था; तथापि धर्म अधर्म के इस महान संकट में पड़ कर बेचारे का मुंह सूख गया, शरीर पर रोंगटे खड़े हो गये, धनुष हाथ से गिर पड़ा और वह मैं नही लडूंगा कहकर अति दुःखितचित से रथ में बैठ गया! और, अंत में, समीपवर्ती बंधु स्नेह का प्रभाव- उस ममत्व का प्रभाव जो मनुष्यद को स्वभावतः प्रिय होता है- दूरवर्ती क्षत्रिय धर्म पर जम ही गया! तब वह मोह वश हो कहने लगा पिता-समपूज्य वृद्ध और गुरु जनों को, भाई- बंधुओं और मित्रों को मार कर तथा अपने कुल का क्षय करके ( घोर पाप करके ) राज्य का एक टुकड़ा पाने से तो टुकड़े मांगकर जीवन निर्वाह करना कही श्रेयस्कर हैं! चाहे मेरे शत्रु मुझे अभी निःशस्त्र देखकर मेरी गर्दन उड़ा दें परन्तु मैं अपने स्वजनों की हत्या करके उनके खून और शाप से सने हुए सुखों का उपभोग नहीं करना चाहता! क्या क्षात्रधर्म इसी को कहते हैं।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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