गीता रहस्य -तिलक पृ. 204

गीता रहस्य अथवा कर्मयोग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक

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नवां प्रकरण

कान्ट का मत भी इसी प्रकार का है; उसने स्‍पष्‍ट कह दिया है कि सृष्टि का ज्ञान होने के लिये यद्यपि मनुष्य की बुद्धि का एकीकरण आवश्यक है, तथापि बुद्धि इस ज्ञान को सर्वथा अपनी ही गाँठ से, अर्थात् निराधार या बिल्‍कुल नया नहीं उत्पन्न कर देती, उसे सृष्टि की बाह्य वस्तुओं की सदैव अपेक्षा रहती है। यहाँ कोई प्रश्न करे कि, ‘‘क्योंजी! शंकराचार्य एक बार बाह्य सृष्टि को मिथ्या कहते हैं और फिर दूसरी बार बौद्धों का खण्डन करने में उसी बाह्य सृष्टि के अस्तित्व को, ‘द्रष्टा’ के अस्तित्व के समान ही प्रतिपादन करते हैं! इन बेमेल बातों का मिलान होगा कैसे?” पर, इस प्रश्न का उत्तर पहले ही बतला चुके हैं। आचार्य जब बाह्य सृष्टि को मिथ्या या असत्य कहते हैं, तब उसका इतना ही अर्थ समझाना चाहिये कि बाह्य सृष्टि का दृश्य नाम-रूप असत्य अर्थात् विनाशवान् है। नाम-रूपात्‍मक बाह्य सृष्टि के मूल में कुछ न कुछ इन्द्रियातीत सत्य वस्तु है। क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ-विचार में जिस प्रकार यह सिद्धान्त किया है कि देहेन्द्रिय आदि विनाशवान् नाम-रूपों के मूल में भी कुछ न कुछ नित्य आत्मतत्त्व है।

अतएव वेदान्तशास्त्र ने निश्चय किया है कि देहेन्द्रियों और बाह्य सृष्टि के निशिदिन बदलने वाले अर्थात् मिथ्या दृश्यों के मूल में, दोनों ही ओर कोई नित्य अर्थात् सत्य द्रव्य छिपा हुआ है। इसके आगे अब प्रश्न होता है कि दोनों ओर जो ये नित्य सत्त्व हैं, वे अलग अलग हैं या एकरूपी हैं। परन्तु इसका विचार फिर करेंगे। इस मत पर मौके-बेमौके इसकी अर्वाचीनता के सम्बन्ध में जो आक्षेप हुआ करता है, अभी उसी का थोड़ा सा विचार करते हैं। कुछ लोग कहते हैं कि बौद्धों का विज्ञान-वाद यदि वेदान्त-शास्त्र को सम्मत नहीं है, तो श्रीशंकराचार्य के माया-वाद का भी तो प्राचीन उपनिषदों में वर्णन नहीं है; इसलिये उसे भी वेदान्‍तशास्त्र का मूल भाग नहीं मान सकते। श्रीशंकराचार्य का मत, कि जिसे माया-वाद कहते हैं, यह है कि बाह्य सृष्टि का, आँखों से देख पड़ने वाला है नाम रूपात्‍मक स्‍वरूप मिथ्‍या है; उसके मूल में जो अव्‍यय और नित्‍य द्रव्‍य है वही सत्य है। परन्तु उपनिषदों का मन लगा कर अध्ययन करने से कोई भी सहज ही जान पावेगा। कि यह आक्षेप निराधार है। यह पहले ही बतला चुके हैं कि ‘सत्य’ शब्द का उपयोग साधारण व्यवहार में आँखों से प्रत्यक्ष देख पड़ने वाली वस्तु के लिये किया जाता है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

गीता रहस्य अथवा कर्म योग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक
प्रकरण नाम पृष्ठ संख्या
पहला विषय प्रवेश 1
दूसरा कर्मजिज्ञासा 26
तीसरा कर्मयोगशास्त्र 46
चौथा आधिभौतिक सुखवाद 67
पाँचवाँ सुखदु:खविवेक 86
छठा आधिदैवतपक्ष और क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विचार 112
सातवाँ कापिल सांख्यशास्त्र अथवा क्षराक्षर-विचार 136
आठवाँ विश्व की रचना और संहार 155
नवाँ अध्यात्म 178
दसवाँ कर्मविपाक और आत्मस्वातंत्र्य 255
ग्यारहवाँ संन्यास और कर्मयोग 293
बारहवाँ सिद्धावस्था और व्यवहार 358
तेरहवाँ भक्तिमार्ग 397
चौदहवाँ गीताध्यायसंगति 436
पन्द्रहवाँ उपसंहार 468
परिशिष्ट गीता की बहिरंगपरीक्षा 509
- अंतिम पृष्ठ 854

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