गीता रहस्य -तिलक पृ. 203

गीता रहस्य अथवा कर्मयोग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक

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नवां प्रकरण

इस दृष्टि से विचार करने पर उक्त तिहरे वर्गीकरण में अर्थात ज्ञाता, ज्ञान और ज्ञेय में- ज्ञेय नही रह पाता; ज्ञाता और उसको होने वाला ज्ञान, यही दो बच जाते हैं; और यदि इसी युक्ति को और जरा सा आगे ले चलें तो ‘ज्ञाता’ या ‘द्रष्टा’ भी तो एक प्रकार का ज्ञान ही है, इसलिये अन्त में ज्ञान के सिवा दूसरी वस्तु ही नहीं रहती। इसी को ‘विज्ञान-वार’ कहते हैं, और योगाचार पन्थ के बौद्धों ने इसे ही प्रमाण माना है। इस पन्थ के विद्वानों ने प्रतिपादन किया है कि ज्ञाता के ज्ञान के अतिरिक्त इस जगत में और कुछ भी स्वतन्त्र नहीं है; और तो क्या, दुनिया ही नहीं है, जो कुछ है मनुष्य का ज्ञान ही ज्ञान है। अंग्रेज ग्रन्थकारों में भी ह्यूम जैसे पण्डित इस ढंग के मत के पुरस्कर्ता हैं। परन्तु वेदान्तियों को यह मत मान्य नहीं है। वेदान्तसूत्रों[1] में आचार्य बादरायण ने और इन्हीं सूत्रों के भाष्य में श्रीमच्छशंकराचार्य ने इस मत का खण्डन किया है। यह कुछ झूठ नहीं है कि मनुष्य के मन पर जो संस्कार होते हैं, अन्त में वे ही उसे विदित रहते हैं; और इसी को हम ज्ञान कहते हैं। परन्तु अब प्रश्‍न होता है कि यदि इस ज्ञान के अतिरिक्त और कुछ है ही नही तो ‘गाय’ -संबंधी ज्ञान जुदा है, ‘घोड़ा’ संबंधी ज्ञान जुदा है, और ‘मैं’-विषयक ज्ञान जुदा है—इस प्रकार ज्ञान-ज्ञान में ही जो भिन्नता हमारी बुद्धि को जँचती है, उसका कारण क्या है?

माना कि, ज्ञान होने की मानसिक क्रिया सर्वत्र एक ही है; परन्तु यदि कहा जाय कि इसके सिवा और कुछ है ही नहीं, तो गाय, घोड़ा इत्यादि भिन्न-भिन्न भेद आ कहाँ से गये? यदि कोई कहे कि स्वप्न की सृष्टि के समान मन आप ही अपनी मर्जी से ज्ञान के ये भेद बनाया करता है; तो स्वप्न पृथक जागृत अवस्था के ज्ञान में जो एक प्रकार का ठीक-ठीक सिलसिला मिलता है, उसका कारण बतलाते नहीं बनता[2]। अच्छा, यदि कहें कि ज्ञान को छोड़ दूसरी कोई भी वस्तु नहीं है और ‘द्रष्टा’ का मन ही सारे भिन्न-भिन्न पदार्थों को निर्मित करता है, तो प्रत्येक द्रष्टा को ‘अहंपूर्वक’ यह सारा ज्ञान होना चाहिये कि ‘मेरा मन यानी मैं ही खम्भा हूँ’ अथवा ‘मैं ही गाय हूँ’। परन्तु ऐसा होता कहाँ है ? इसी से शंकराचार्य ने सिद्धान्त किया है कि, जब सभी को यह प्रतीति होती है कि मैं अलग हूँ और मुक्त से खम्भा और गाय प्रभृति पदार्थ भी अलग-अलग हैं तब द्रष्टा के मन में समूचा ज्ञान होने के लिये इस आधारभूत बाह्य सृष्टि में कुछ न कुछ स्वतंत्र वस्तुएँ अवश्य होनी चाहिये[3]

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 2.2.28-32
  2. वेसू. शांभा. 2. 2. 29; 3. 2. 4
  3. वेसू. शांभा. 2. 2. 28

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प्रकरण नाम पृष्ठ संख्या
पहला विषय प्रवेश 1
दूसरा कर्मजिज्ञासा 26
तीसरा कर्मयोगशास्त्र 46
चौथा आधिभौतिक सुखवाद 67
पाँचवाँ सुखदु:खविवेक 86
छठा आधिदैवतपक्ष और क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विचार 112
सातवाँ कापिल सांख्यशास्त्र अथवा क्षराक्षर-विचार 136
आठवाँ विश्व की रचना और संहार 155
नवाँ अध्यात्म 178
दसवाँ कर्मविपाक और आत्मस्वातंत्र्य 255
ग्यारहवाँ संन्यास और कर्मयोग 293
बारहवाँ सिद्धावस्था और व्यवहार 358
तेरहवाँ भक्तिमार्ग 397
चौदहवाँ गीताध्यायसंगति 436
पन्द्रहवाँ उपसंहार 468
परिशिष्ट गीता की बहिरंगपरीक्षा 509
- अंतिम पृष्ठ 854

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