गीता रहस्य -तिलक पृ. 202

गीता रहस्य अथवा कर्मयोग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक

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नवां प्रकरण

इस पर नारद ने कहा कि, ‘‘मैंने इतिहास-पुराणरूपी पांचवें वेद सहित ऋग्वेद, प्रभृति समग्रवेद, व्याकरण, गणित, तर्कशास्‍त्र, कालशास्‍त्र, नीतिशास्‍त्र, सभी वेदागं, धर्मशास्‍त्र, भूतविद्या, क्षत्रविद्या, नक्षत्रविद्या और सर्पदेवजनविद्या, प्रभृति सब कुछ पढ़ा है; परन्तु जब इससे आत्मज्ञान नहीं हुआ, तब अब तुम्हारे यहाँ आया हूँ।’’ इसका सनत्कुमार ने यह उत्तर दिया कि, ‘तूने जो कुछ सीखा है, वह तो सारा नामरूपात्मक है; सच्चा ब्रह्म इस नामब्रह्म से बहुत आगे है; और फिर नारद को क्रमश: इस प्रकार पहचान करा दी कि, इस नाम रूप से अर्थात सांख्यों की अव्यक्त प्रकृति से अथवा वाणी, आशा, संकल्प, मन, बुद्धि (ज्ञान ) और प्राण से भी परे एवं इनसे बढ़-चढ़ कर जो है वही परमात्मारूपी अमृततत्त्व है। यहाँ तक जो विवेचन किया गया, उसका तात्पर्य यह है कि यद्यपि मनुष्य की इन्द्रियों को नाम-रूप के अतिरिक्त और किसी का भी प्रत्यक्ष ज्ञान नहीं होता है, तो भी इस अनित्य नाम-रूप के आच्छादन से ढका हुआ लेकिन आंखों से न देख पड़ने वाला अर्थात कुछ न कुछ अव्यक्त नित्य द्रव्य रहना ही चाहिये; और इसी कारण सारी सृष्टि का ज्ञान हमें एकता से होता रहता है। जो कुछ ज्ञान होता है, सो आत्मा को ही होता है, इसलिये आत्मा ही ज्ञाता यानी जानने वाला हुआ। और इस ज्ञाता को नाम-रूपात्मक सृष्टि का ही ज्ञान होता है; अतः नाम-रूपात्मक बाह्य सृष्टि ज्ञान हुई[1] और इस नाम रूपात्मक सृष्टि के मूल में जो कुछ वस्तुतत्त्व है, वही ज्ञेय है।

इसी वर्गीकरण को मान कर भगवद्गीता ने ज्ञाता को क्षेत्रज्ञ आत्मा और ज्ञेय को इन्द्रियातीत नित्य परब्रह्म कहा है[2]; और फिर आगे ज्ञान के तीन भेद करके कहा कि, भिन्‍नता या नानात्व से जो सृष्टि ज्ञान होता है वह राजस है, तथा इस नानात्व का जो ज्ञान एकत्वरूप से होता है वह सात्त्विक ज्ञान है[3]। इस पर कुछ लोग कहते हैं कि इस प्रकार ज्ञाता, ज्ञान, और ज्ञेय का तिहरा भेद करना ठीक नही है; एवं यह मानने के लिये हमारे पास कुछ भी प्रमाण नहीं है कि हमें जो कुछ ज्ञान होता है, उसकी अपेक्षा जगत में और भी कुछ है। गाय, घोड़े, प्रभृति जो बाह्य वस्तुएं हमें देख पड़ती है, वह तो ज्ञान ही है, जो कि हमें होता है, और यद्यपि यह ज्ञान सत्य है तो भी यह बतलाने के लिये कि, वह ज्ञान है का है का, हमारे पास ज्ञान को छोड़ और कोई मार्ग ही नहीं रह जाता; अतएव यह नहीं कहा जा सकता कि इस ज्ञान के अतिरिक्त बाह्य पदार्थ के नाते कुछ स्वतंत्र वस्तुएं हैं अथवा इन बाह्य वस्तुओं के मूल में और कोई स्वतंत्र तत्त्व है। क्योंकि जब ज्ञाता ही न रहा तब जगत कहाँ से रहे?

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. मभा. शां. 306.40
  2. गी. 13.12.17
  3. गी. 18.20,21

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गीता रहस्य अथवा कर्म योग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक
प्रकरण नाम पृष्ठ संख्या
पहला विषय प्रवेश 1
दूसरा कर्मजिज्ञासा 26
तीसरा कर्मयोगशास्त्र 46
चौथा आधिभौतिक सुखवाद 67
पाँचवाँ सुखदु:खविवेक 86
छठा आधिदैवतपक्ष और क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विचार 112
सातवाँ कापिल सांख्यशास्त्र अथवा क्षराक्षर-विचार 136
आठवाँ विश्व की रचना और संहार 155
नवाँ अध्यात्म 178
दसवाँ कर्मविपाक और आत्मस्वातंत्र्य 255
ग्यारहवाँ संन्यास और कर्मयोग 293
बारहवाँ सिद्धावस्था और व्यवहार 358
तेरहवाँ भक्तिमार्ग 397
चौदहवाँ गीताध्यायसंगति 436
पन्द्रहवाँ उपसंहार 468
परिशिष्ट गीता की बहिरंगपरीक्षा 509
- अंतिम पृष्ठ 854

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