गीता रहस्य अथवा कर्मयोग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक
नवां प्रकरण
छान्दोग्य[1],बृहदारणयक[2] मुराडक[3] और प्रश्र्न[4], आदि उपनिषदों में बारंबार बतलाया गया है कि नित्य बदलते रहने वाले अर्थात नाशवान नाम-रूप सत्य नहीं हैं; जिसे सत्य अर्थात नित्य स्थिर तत्त्व देखना हो, उसे अपनी दृष्टि को इन नाम-रूपों से बहुत आगे पहुँचाना चाहिये। इसी नाम-रूप को कठ[5] और मुराडक [6] आदि उपनिषदों में ‘अविद्या’ तथा श्वेताश्वर उपनिषद[7] में ‘माया’ कहा है। भगवद्गीता में ‘माया,’ ‘मोह’ और ‘अज्ञान’ शब्दों से वही अर्थ विवक्षित हैं। जगत के आरम्भ में जो कुछ था, वह बिना नाम-रूप का था अर्थात निर्गुण और अव्यक्त था; फिर आगे चल कर नाम-रूप मिल जाने से वही व्यक्त और सगुण बन जाता है[8]। अतएव विकारवान अथवा नाशवान नाम-रूप को ही ‘माया ’ नाम दे कर कहते हैं कि यह सगुण अथवा दृश्य-सष्टि एक मूलद्रव्य अर्थात ईश्वर की माया का खेल या लीला है। अब इस दृष्टि से देखें तो सांख्यों की प्रकृति अव्यक्त भले बनी रहे, पर वह सत्त्व-रज-तमगुणमयी है, अतः नाम रूप से युक्त माया ही है। इस प्रकृति से विश्व की जो उत्पत्ति या फैलाव होता है (जिसका वर्णन आठवें प्रकरण में किया है ), वह भी तो उस माया का सगुण नाम-रूपात्मक विकार है। क्योंकि कोई भी गुण हो, वह इन्द्रियों को गोचर होने वाला और इसी से नाम-रूपात्मक ही रहेगा। सारे आधिभौतिक शास्त्र भी इसी प्रकार माया के वर्ग में आ जाते हैं। इतिहास, भूगर्भशास्त्र, विद्युतशास्त्र, रसायनशास्त्र, पदार्थ विज्ञान आदि कोई भी शास्त्र लीजिये, उसमें सब नाम-रूप का ही तो विवेचन रहता है अर्थात यही वर्णन होता है कि किसी भी पदार्थ का एक नाम-रूप चला जा कर उसे दूसरा नाम-रूप कैसे मिलता है। उदाहरणार्थ, नाम रूप के भेद का ही विचार इस शास्त्र में इस प्रकार रहता है; जैसे पानी जिसका नाम है, उसको भाफ़ नाम कब और कैसे मिलता है अथवा काले-कलूटे तारकोल से लाल-हरे, नीले-पीले रंगने के रंग (रूप) क्यों कर बनते हैं, इत्यादि। अतएव नाम-रूप में ही उलझे हुए इन शास्त्रों के अभ्यास से, उस सत्य वस्तु का बोध नही हो सकता कि जो नाम-रूप से परे हैं। प्रगट है कि जिसे सच्चे ब्रह्मस्वरूप का पता लगाना हो, उसको अपनी दृष्टि इन सब आधिभौतिक अर्थात नाम-रूपात्मक शास्त्रों से परे पहुँचानी चाहिए। और यही अर्थ छान्दोग्य उपनिषद में, सातवें अध्याय के आरम्भ की कथा में व्यक्त किया गया है। कथा का आरम्भ इस प्रकार है; नारद ऋषि सनत्कुमार अर्थात स्कन्द के यहाँ जा कर कहने लगे कि, ‘मुझे आत्मज्ञान बताओ;’ तब सनत्कुमार बोले कि, ‘पहले बतलाओ, तुमने क्या सीखा है, फिर मैं बतलाता हूँ।’ |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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