गीता रहस्य अथवा कर्मयोग शास्त्र- बाल गंगाधर तिलक
पहला प्रकरण
इसमें कुछ आश्चर्य नहीं कि हिन्दुस्थान की सब भाषाओं में इसके अनेक अनुवाद, टीकाएँ और विवेचन हो चुके हैं। परन्तु जब से पश्चिमी विद्वानों को संस्कृत भाषा का ज्ञान होने लगा है तब से ग्रीक, लेटिन, जर्मन, फ्रेंच, अंग्रेज़ी आदि यूरोप की भाषाओं में भी इसके अनेक अनुवाद प्रकाशित हुए है। तात्पर्य यह है कि इस समय यह अद्वितीय ग्रंथ समस्त संसार में प्रसिद्ध है। इस ग्रंथ में सब उपनिषदों का सार आ गया है, इसी से इसका पूरा नाम श्रीमद्भगवद्गीता उपनिषद है। गीता के प्रत्येक अध्याय के अंत में जो अध्याय समाप्ति दर्शक संकल्प है इसमें इति "श्रीमद्भगवद्गीता सूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुन संवादे" इत्यादि शब्द हैं। यह संकल्प यद्यपि मूल ग्रंथ महाभारत में नहीं है, तथापि यह गीता की सभी प्रतियों में पाया जाता है। इससे अनुमान होता है कि गीता की किसी भी प्रकार की टीका होने के पहले ही, जब वह महाभारत से नित्य पाठ के लिये अलग निकाल ली गई होगी तभी से उक्त संकल्प का प्रचार हुआ होगा। इस दृष्टि से, गीता के तात्पर्य का निर्णय करने के कार्य में उसका महत्त्व कितना है यह आगे चल कर बताया जायगा। यहाँ इस संकल्प के केवल दो पद भगवद्गीतासु उपनिषत्सु विचारणीय है। ‘उपनिषत’ शब्द हिन्दी में पुल्लिंग माना जाता है, परन्तु वह संस्कृत में स्त्रीलिंग है इसीलिये श्रीभगवान से गाया गया अर्थात कहा गया उपनिषद' यह अर्थ प्रगट करने के लिये संस्कृत में “श्रीमद्भगवद्गीता उपनिषत’’ ये दो विशेषण- विशेष्य रूप स्त्रीलिंग शब्द प्रयुक्त हुए हैं और यद्यपि ग्रंथ एक ही है तथापि सम्मान के लिये 'श्रीमद्भगवद्गीता सूपनिषत्सु’ ऐसा सप्तमी के बहुवचन का प्रयोग किया गया है। शंकराचार्य के भाष्य में भी इस ग्रंथ को लक्ष्य करके 'इति गीतासु' यह बहुवचनान्त प्रयोग पाया जाता है। परन्तु नाम को संक्षिप्त करने के समय आदर सूचक प्रत्यय, पद तथा अंत के सामान्य जातिवाचक ‘उपनिषत्’ शब्द भी उड़ा दिये गये, जिससे ‘श्रीमद्भगवद्गीता’ ‘उपनिषत्’ इन प्रथमा के एकवचनान्त शब्दों के बदले पहले ‘भगवद्गीता’ और फिर केवल ‘गीता’ ही संक्षिप्त नाम प्रचलित हो गया। ऐसे बहुत से संक्षिप्त नाम प्रचलित हैं जैसे कठ, छांदोग्य, केन इत्यादि। यदि ‘उपनिषत्’ शब्द मूल नाम में न होता तो 'भागवतम्', 'भारतम्', 'गोपीगीतम्' इत्यादि शब्दों के समान इस ग्रंथ का नाम भी ‘भगवद्गीतम्’ या केवल ’गीतम्’ बन जाता जैसा कि नपुंसकलिंग के शब्दों का स्वरूप होता है; परन्तु जबकि ऐसा हुआ नहीं है और ‘भगवद्गीता’ या ‘गीता’ यही स्त्रीलिंग शब्द अब तक बना है, तब उसके सामने ‘उपनिषत्’ शब्द को नित्य अध्याह्त समझना ही चाहिये। अनुगीता की अर्जुनमिश्र कृत टीका में ‘अनुगीता’ शब्द का अर्थ भी इसी रीति से किया गया है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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