गीता रहस्य -तिलक पृ. 197

गीता रहस्य अथवा कर्मयोग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक

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नवां प्रकरण

सोना तो एक ही पदार्थ है; परन्तु भिन्न भिन्न समय पर बदलने वाले उसके आकारों के जो संस्कार, इन्द्रियों के द्वारा मन पर होते हैं उन्हें एकत्र करके ‘द्रष्टा’ उस सोने को ही[1] कभी ‘कड़ा,’ ‘अंगूठी’ या कभी ‘पंचलड़ी’ ‘पहुँची’ और ‘कंगन’ इत्यादि भिन्न भिन्न नाम दिया करता है। भिन्न भिन्न समय पर पदार्थों को जो इस प्रकार नाम दिये जाते हैं उन नामों को, तथा पदार्थों की जिन भिन्न भिन्न आकृतियों के कारण वे नाम बदलते रहते हैं उन आकृतियों को उपनिषदों में ‘नाम-रूप’ कहते हैं और इन्हीं में अन्य सब गुणों का भी समावेश कर दिया जाता है [2]। और इस प्रकार समावेश होना ठीक भी है क्योंकि कोई भी गुण लीजिए, उसका कुछ नाम या रूप अवश्‍य होगा। यद्यपि इन नाम-रूपों में प्रतिक्षण परिवर्तन होता रहे; तथापि कहना पड़ता है कि इन नामों-रूपों के मूल में आधारभूत कोई तत्त्व या द्रव्य है जो इन नाम-रूपों से भिन्न है पर कभी बदलता नहीं -जिस प्रकार पानी पर तरंगें होती हैं, उसी प्रकार ये सब नाम-रूप किसी एक ही मूलद्रव्य पर तरंगों के समान हैं। यह सच है कि हमारी इन्द्रियां नाम-रूप के अतिरिक्त और कुछ भी पहचान नहीं सकतीं; अतएव इन इन्द्रियों को उस मूलद्रव्य का ज्ञान होना सम्भव नहीं कि जो नाम-रूप से भिन्न हो परन्तु उसका आधारभूत है।

परन्तु सारे संसार का आधारभूत यह तत्त्व भले ही अव्यक्त हो अर्थात इन्द्रियों से न जाना जा सके; तथापि हमको अपनी बुद्धि से यहीं निश्चित अनुमान करना पड़ता है, कि वह सत है अर्थात वह सचमुच सर्वकाल, सब नाम-रूपों के मूल में तथा नाम-रूपों में भी निवास करता है, और उसका कभी नाश नहीं होता, क्योंकि यदि इन्द्रिय-गोचर नाम-रूपों के अतिरिक्त, मूलतत्त्व को कुछ मानें ही नहीं तो फिर ‘कड़ा,’ ‘कगंन’ आदि भिन्न भिन्न पदार्थ हो जावेंगे; एवं इस समय हमें जो यह ज्ञान हुआ करता है कि ‘वे सब एक ही धातु के, सोने के बने हैं’ उस ज्ञान के लिये कुछ भी आधार नहीं रह जावेगा। ऐसी अवस्था में केवल इतना ही कहते बनेगा कि यह ‘कड़ा’ है, यह ‘कंगन’ है; यह कदापि न कह सकेंगे कि कड़ा सोने का है और कंगन भी सोने का है, अतएव न्यायतः यह सिद्धान्त प्राप्त होता है, कि ‘कड़ा सोने का है’, ‘कंगन सोने का है’, इत्यादि वाक्यों में ‘है’ शब्‍द से जिस सोने के साथ नामरूपात्‍मक ‘कड़े’ और ‘कंगन’ का सबंध जोड़ा गया है, वह सोना केवल शशश्रृंगवत् अभावरूप नहीं है, किन्तु वह उस द्रव्यांश का ही बोधक है कि जो सारे आभूषणों का आधार है। इसी न्याय का उपयोग सृष्टि के सारे पदार्थों में करें तो सिद्धान्त यह निकलता है कि पत्थर, मिट्टी, चांदी, लोहा, लकड़ी, इत्यादि अनेक नाम-रूपात्‍मक पदार्थ, जो नजर आते हैं वे , सब किसी एक ही द्रव्य पर भिन्न भिन्न नाम-रूपों का मुलम्मा या गिलट कर, उत्पन्न हुए हैं; अर्थात सारा भेद केवल नाम-रूपों का है मूलद्रव्य का नहीं, भिन्न-भिन्न नाम-रूपों की जड़ में एक ही द्रव्य नित्य निवास करता है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. कि जो तात्त्विक दृष्टि से एक ही मूल पदार्थ हैं
  2. छां.6.3 और 4; बृ. 1.4.7

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गीता रहस्य अथवा कर्म योग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक
प्रकरण नाम पृष्ठ संख्या
पहला विषय प्रवेश 1
दूसरा कर्मजिज्ञासा 26
तीसरा कर्मयोगशास्त्र 46
चौथा आधिभौतिक सुखवाद 67
पाँचवाँ सुखदु:खविवेक 86
छठा आधिदैवतपक्ष और क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विचार 112
सातवाँ कापिल सांख्यशास्त्र अथवा क्षराक्षर-विचार 136
आठवाँ विश्व की रचना और संहार 155
नवाँ अध्यात्म 178
दसवाँ कर्मविपाक और आत्मस्वातंत्र्य 255
ग्यारहवाँ संन्यास और कर्मयोग 293
बारहवाँ सिद्धावस्था और व्यवहार 358
तेरहवाँ भक्तिमार्ग 397
चौदहवाँ गीताध्यायसंगति 436
पन्द्रहवाँ उपसंहार 468
परिशिष्ट गीता की बहिरंगपरीक्षा 509
- अंतिम पृष्ठ 854

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