गीता रहस्य अथवा कर्मयोग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक
नवां प्रकरण
अर्वाचीन जर्मन तत्त्वेता कान्ट ने इस बात का सूक्ष्म विचार किया है, कि मनुष्य को बाह्य सृष्टि की विविधता या भिन्नता का ज्ञान एकता से क्यों और कैसे होता है; और फिर उक्त उपपत्ति को ही उसने अर्वाचीन शास्त्र की रीति से अधिक स्पष्ट कर दिया है। हैकल यद्यपि अपने विचार में कान्ट से कुछ आगे बढ़ा है तथापि उसके भी सिद्धान्त वेदान्त के आगे नहीं बढ़े हैं। शोपेनहर की भी यही बात है। लैटिन भाषा में लिखे गये उपनिषदों के अनुवाद का अभ्यास उसने किया था; और उसने अपने ग्रन्थ में यह बात भी लिख रखी है कि ‘‘ संसार के साहित्य के इस अत्युत्तम ’’ ग्रन्थ से कुछ विचार मैंन लिये हैं। इस छोटे से ग्रन्थ में हम सब बातों का विस्तारपूर्वक निरूपण करना सम्भव नहीं, कि उक्त गम्भीर विचारों और उनके साधक-बाधक प्रमाणों में अथवा वेदान्त के सिद्धान्तों और कान्ट प्रभृति पश्चिमी तत्त्वज्ञों के सिद्धान्तों में समानता कितनी है और अन्तर कितना है। इसी प्रकार इस बात की भी विस्तार से चर्चा नहीं कर सकते, कि उपनिषद और वेदान्त में छोटे मोटे भेद कौन कौन से हैं। अतएव भगवद्गीता के अध्यात्म-सिद्धान्तों की सत्यता, महत्त्व और उत्पत्ति समझा देने के लिये जिन जिन बातों की आवश्यकता है, सिर्फ उन्हीं बातों का यहाँ दिग्दर्शन किया गया है; और इस चर्चा के लिये उपनिषद, वेदान्तसूत्र और उसके शांकरभाष्य का आधार प्रधान रूप से लिया गया है। प्रकृति-पुरुष रूपी सांख्योक्त द्वैत के परे क्या है- इसका निर्णय करने के लिये, केवल द्रष्टा और दृश्य सृष्टि के द्वेत-भेद पर ही ठहर जाना उचित नहीं; किन्तु इस बात का भी सूक्ष्म विचार करना चाहिये कि दृष्टा पुरुष को बाह्य सृष्टि का जो ज्ञान होता है उसका स्वरूप क्या है, वह ज्ञान किससे होता है और किसका होता है। बाह्य सृष्टि के पदार्थ मनुष्य को नेत्रों से जैसे दिखार्इ देते हैं, वैसे तो वे पशुओं को भी दिखाई देते हैं। परन्तु मनुष्य में यह विशेषता है कि आंख, कान इत्यादि बाह्येन्द्रियों से उसके मन पर जो संस्कार हुआ करते हैं, उनका एकीकरण करने की शक्ति उसमें है और इसी लिये बाह्य सृष्टि के पदार्थ मात्र का ज्ञान उसको हुआ करता है। पहले क्षैत्र-क्षैत्रज्ञ-विचार में बतला चुके हैं, कि जिस एकीकरण-शक्ति का फल उपर्युक्त विषेशता है, वह शक्ति मन और बुद्धि के भी परे है अर्थात वह आत्मा की शक्ति है। यह बात नहीं, कि किसी एक ही पदार्थ का ज्ञान उक्त रीति से होता हो; किन्तु सृष्टि के भिन्न भिन्न पदार्थों में कार्य-कारण-भाव आदि जो अनेक संबंध हैं-जिन्हें हम सृष्टि के नियम कहते हैं -उनका ज्ञान भी इसी प्रकार हुआ करता है। इसका कारण यह है, कि यद्यपि हम भिन्न भिन्न पदार्थों को दृष्टि से देखते हैं तथापि उनका कार्य-कारण-संबंध प्रत्यक्ष दृष्टि-गोचर नहीं होता; किन्तु हम अपने मानसिक व्यापारों से उसे निश्रित किया करते हैं। उदाहरणार्थ, जब कोई एक पदार्थ हमारे नत्रों के सामने आता है तब उसका रूप और उसकी गति देख कर हम निश्चय करते हैं कि यह एक ‘फौजी सिपाही’ है, और यही संस्कार मन में बना रहता है। इस के बाद ही जब कोई दूसरा पदार्थ उसी रूप और गति में दृष्टि के सामने आता है, तब वही मानसिक क्रिया फिर शुरू हो जाती है और हमारी बुद्धि को निश्चय हो जाता है कि वह भी एक फौजी सिपाही है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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