गीता रहस्य -तिलक पृ. 194

गीता रहस्य अथवा कर्मयोग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक

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नवां प्रकरण

अच्छा; अब यदि अमृतत्त्व को मिथ्या कहें, तो मनुष्यों को यह स्वाभाविक इच्छा देख पड़ती है, कि वे किसी राजा से मिलने वाले पुरस्कार या पारितोषिक का उपभोग न केवल अपने लिये वरन् अपने पुत्र-पौत्रादि के भी लिये-अर्थात् चिरकाल के लिये-करना चाहते हैं; अथवा यह भी देखते हैं कि चिरकाल रहने वाली या शाश्वत कीर्ति पाने का जब अवसर आता है, तब मनुष्य अपने जीवन की भी परवा नहीं करता। ऋग्वेद के समान अत्यंत प्राचीन ग्रन्थों में भी पूर्व ऋषियों की यही प्रार्थना है, कि ‘‘ हे इन्द्र! तू हमें ‘अज्ञित भव’ अर्थात् अक्षय कीर्ति या धन दे” [1], अथवा ‘‘ हे सोम! तु मुझे वैवस्वत ( यम ) लोक में अमर कर दे ‘‘[2]। और, अर्वाचीन समय में इसी दृष्टि को स्वीकार कर स्पेन्सर, कोन्ट प्रभृति केवल आधिभौतिक पण्डित भी यही कहते हैं, कि ‘‘इस संसार में मनुष्य मात्र का नैतिक परम कर्तव्य यही है, कि वह किसी प्रकार के क्षणिक स्वार्थी सुख में न फँस कर वर्तमान और भविष्यत् मनुष्य जाति के चिरकालिक सुख के लिये उद्योग करे।“ अपने जीवन के पश्चात् चिरकालिक कल्याण की अर्थात् अमृतत्त्व की यह कल्पना आई कहाँ से ? यदि कहें कि यह स्वभाव-सिद्ध है, तो मानना पड़ेगा कि इस नाशवान देह के सिवा और कोई अमृत वस्तु अवश्य है। और यदि कहें कि ऐसी अमृत वस्तु कोई नहीं है; तो हमें जिस मनोवृति की साक्षात् प्रतीति होती है, उसका अन्य कोई कारण भी नहीं बतलाते बन पड़ता!

ऐसी कठिनाई आ पड़ने पर कुछ आधिभौतिक पंडित यह उपदेश करते हैं, कि इन प्रश्नों का कभी समाधान-कारक उत्तर नहीं मिल सकता, अतएव इनका विचार न करके दृश्य सृष्टि के पदार्थों के गुण-धर्म के परे अपने मन की दौड़ कभी न जाने दो। यह उपदेश है तो सरल; परन्तु मनुष्‍य के मन में तत्त्व ज्ञान की जो स्वाभाविक लालसा होती है उसका प्रतिबन्ध कौन और किस प्रकार से कर सकता है? और इस दुर्धर जिज्ञासा का यदि नाश कर डालें तो फिर ज्ञान की वृद्धि हो कैसे ? जब से मनुष्य इस पृथ्वीतल पर उत्पन्न हुआ है, तभी से वह इस प्रश्न का विचार करता चला आया है कि, ‘‘ सारी दृश्य और नाशवान् सृष्टि का मूलभूत अमृत तत्त्व क्या है, और वह मुझे कैसे प्राप्त होगा? ‘‘आधिभौतिक शास्त्रों की चाहे जैसी उन्नति हो, तथापि मनुष्य की अमृत-तत्त्व सम्बन्धी ज्ञान की स्वाभाविक प्रवृति कभी कम होने की नहीं। आधिभौतिकशास्त्रों की चाहे जैसी वृद्धि हो, तो भी सारे आधिभौतिक सृष्टि-विज्ञान को बगल में दबा कर आध्यात्मिक तत्त्व ज्ञान सदा उसके आगे ही दौड़ता रहेगा! दो चार हजार वर्ष के पहले यही दशा थी, और अब पश्चिमी देशों में भी वही बात देख पड़ती है। और तो क्या, मनुष्य की बुद्धि की यह ज्ञान-लालसा जिस दिन छूटेगी उस दिन उसके विषय में यही कहना होगा कि ‘‘स वै मुक्तोऽथवा पशुः” दिक्काल से अमर्यादित, अमृत, अनादि, स्वतन्त्र, एक, निरंतर, सर्वव्यापि और निर्गुण तत्त्व के अस्तित्व के विषय में अथवा उस निर्गुण तत्त्व से सगुण-सृष्टि की उत्‍पत्ति के विषय में जैसा व्याख्यान हमारे प्राचीन उपनिषदों में किया गया है उससे अधिक सयुक्तिक व्याख्यान अन्य देशों के तत्त्वज्ञों ने अब तक नहीं किया है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. ऋ. 1. 9. 7
  2. ऋ. 9. 113. 8

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गीता रहस्य अथवा कर्म योग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक
प्रकरण नाम पृष्ठ संख्या
पहला विषय प्रवेश 1
दूसरा कर्मजिज्ञासा 26
तीसरा कर्मयोगशास्त्र 46
चौथा आधिभौतिक सुखवाद 67
पाँचवाँ सुखदु:खविवेक 86
छठा आधिदैवतपक्ष और क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विचार 112
सातवाँ कापिल सांख्यशास्त्र अथवा क्षराक्षर-विचार 136
आठवाँ विश्व की रचना और संहार 155
नवाँ अध्यात्म 178
दसवाँ कर्मविपाक और आत्मस्वातंत्र्य 255
ग्यारहवाँ संन्यास और कर्मयोग 293
बारहवाँ सिद्धावस्था और व्यवहार 358
तेरहवाँ भक्तिमार्ग 397
चौदहवाँ गीताध्यायसंगति 436
पन्द्रहवाँ उपसंहार 468
परिशिष्ट गीता की बहिरंगपरीक्षा 509
- अंतिम पृष्ठ 854

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